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________________ hodaiseDROIRRRRRRRARSATSAPOSTAKORooxoANOPAOoltodayisas विवेचन-प्रस्तुत दोनों सूत्र वस्त्र-पात्रादि रूप उपधि से विमोक्ष की साधना की दृष्टि से प्रतिमाधारी या जिनकल्पिक श्रमण के लिए प्रतिपादित है। जो भिक्षु तीन वस्त्र और एक पात्र के सिवाय अन्य उपधि न रखने की प्रतिज्ञा लेता है, वह शीतादि का परीषह. उत्पन्न होने पर भी चौथे वस्त्र को स्वीकार करने की इच्छा नहीं करे। यदि उसके पास अपनी ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा (कल्प) से कम वस्त्र हैं, तो वह दूसरा वस्त्र ले सकता है। ___टीका एवं चूर्णि के अनुसार-जिनकल्पी तथा स्थविरकल्पी मुनि तीन वस्त्र रख सकते हैं। जिनकल्पी मुनि दो, एक वस्त्र भी रखता है, अथवा निर्वस्त्र भी रह सकता है। ___ पात्र-निर्योग-टीकाकार ने पात्र के सन्दर्भ में पात्र से सम्बन्धित सामान भी उसी के अन्तर्गत माना है। जैसे “पत्ते पत्ताबंधो पायट्ठवणं च पायकेसरिआ। पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छओ पायणिज्जागो॥" (१) पात्र, (२) पात्र बन्धन, (३) पात्र-स्थापन, (४) पात्र-केसरी (प्रमार्जनिका), (५) पटल, (६) रजस्त्राण, और (७) पात्र साफ करने का वस्त्र-गोच्छक, ये सातों मिलकर पात्र-निर्योग कहलाते हैं। ये सात उपकरण, तीन वस्त्र तथा रजोहरण और मुखवस्त्रिका, यों १२ उपकरण जिनकल्प की भूमिका पर स्थित एवं प्रतिमाधारक मुनि के होते हैं। यथाप्राप्त वस्त्रधारक-भिक्षु-जैसे भी जिस रूप में एषणीय-कल्पनीय वस्त्र मिलें, उसे वह उसी रूप में धारण करे, वस्त्र के प्रति किसी विशेष प्रकार का आग्रह या ममत्व न रखे। वह उन्हें न तो फाड़कर छोटा करे, न उनमें टुकड़ा जोड़कर बड़ा करे, न उसे धोए और न रंगे। यह विधान भी जिनकल्पी विशिष्ट प्रतिमाधारी मुनि के लिए है। स्थविरकल्पी मुनियों के लिए कुछ कारणों से वस्त्र धोने का विधान है, किन्तु वह भी विभूषा एवं सौन्दर्य की दृष्टि से नहीं। शृंगार और साज-सज्जा की भावना से वस्त्र ग्रहण करने, पहनने, धोने आदि की आज्ञा किसी भी प्रकार के साधक को नहीं है और रंगने का तो सर्वथा निषेध है ही। (आत्माराम जी म. कृत टीका, पृ. ५७८) ___ 'सान्तोत्तरे' शब्द का अर्थ चूर्णिकार ने किया है-एक अन्तर पट तथा एक उत्तर पट। ओमचेलए-का अर्थ अल्प या साधारण होता है। 'अवम' शब्द यहाँ संख्या, परिमाण (नाप) और मूल्य-तीनों दृष्टियों से अल्पता या साधारणता का सूचक है। कम से कम मूल्य के, साधारण से और थोड़े से वस्त्र से निर्वाह करने वाला भिक्षु 'अवमचेलक' कहलाता है। ___ 'अहपरिजुण्णाई वत्थाई परिडवेज्जा'-इस सूत्र का भाव है भिक्षु जितने कम से कम वस्त्र से रह सकता है, रहने का अभ्यास करे। ज्यों ही ग्रीष्म ऋतु आ जाये, साधक तीन वस्त्रों में से एक वस्त्र, जो अत्यन्त जीर्ण हो जाय उसका विसर्जन कर दे। रहे दो वस्त्र, उनमें से भी कर सकता हो तो एक वस्त्र कम कर दे, सिर्फ एक वस्त्र में रहे, और यदि इससे भी आगे हिम्मत कर सके तो बिलकुल वस्त्ररहित हो जाय। किन्तु मुखवस्त्रिका तथा रजोहरण अवश्य रखे, क्योंकि ये दोनों जीव रक्षा के साधन हैं। वस्त्र परित्याग से तपस्या का लाभ तो है ही, वस्त्र सम्बन्धी चिन्ताओं से मुक्त होने, लघुभूत (हल्के-फुल्के) होने का महालाभ भी मिलेगा। आचारांग सूत्र ( ४०२ ) Illustrated Acharanga Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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