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दर्शन से और देश से सम हो, किन्तु भोजनादि व्यवहार से नहीं, वह समनुज्ञ है। यहाँ साधर्मिक मुनि ही विवक्षित है साधर्मिक गृहस्थ नहीं। (वृत्ति, पत्रांक २६४) मुनि अपने साधर्मिक समनोज्ञ मुनि को ही आहार, वस्त्र-उपकरण आदि ले-दे सकता है। किन्तु एक समान आचार होने पर भी जो शिथिल आचार वाले पार्श्वस्थ, कुशील, अपच्छंद, अपसन्न आदि हों, उन्हें मुनि आदरपूर्वक आहारादि नहीं ले-दे सकता। इसे स्पष्ट करने के लिए ही सांभोगिक और समनुज्ञ विशेषण जुड़े हैं।
असमनुज्ञ के लिए शास्त्रों में 'अन्यतीर्थिक' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। कदाचित् ऐसा समनुज्ञ या असमनुज्ञ साधु अत्यन्त रुग्ण, असहाय, अशक्त, ग्लान या संकटग्रस्त या एकाकी आदि हो तो अपवाद रूप से ऐसे साधु को भी आहारादि दिया-लिया जा सकता है, उसे निमन्त्रित भी किया जा सकता है, और उसकी सेवा भी की जा सकती है। आचार्य श्री आत्माराम जी म. के कथनानुसार-संसर्ग-जनित दोष से बचने के लिए ही ऐसा निषेध किया गया है। मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भावना को हृदय से निकाल देने के लिए नहीं।
इसी सूत्र २00 की पंक्ति में 'परं आढायमाणे' पद आया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि अत्यन्त आदर के साथ नहीं, किन्तु कम आदर के साथ अर्थात् आपवादिक स्थिति में समनुज्ञ साधु को आहारादि दिया जा सकता है। इसमें संसर्ग या सम्पर्क बढ़ाने की दृष्टि का निषेध होते हुए, वात्सल्य एवं सेवा-भावना का अवकाश सूचित होता है।
सूत्र २०० में ‘णो पाएज्जा, णो कुज्जा वेयावडियं, परं आढायमाणे त्तिबेमि' के बदले चूर्णि में ‘पाएज्ज वा णिमन्तेज्ज वा कुज्जा वा वेयावडियं परं आढायमाणा' पाठ मिलता है। इसका अर्थ इस प्रकार किया जाता है " "अत्यधिक आदरपूर्वक देने के लिए निमन्त्रित करे या उनकी वैयावृत्य (सेवा) करे।" आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने ‘परं आढायमाणे' शब्द से स्पष्ट किया है कि आदर सन्मानपूर्वक न दे, किन्तु विशेष परिस्थिति में आहारादि दिया जा सकता है। (आचा., पृ. ५४१) आचार्य महाप्रज्ञ जी ने ‘परं आढायमाणे' का अर्थ किया है, उन्हें आदरपूर्वक कहे कि यह आहार आदि देना मेरी मर्यादा के अनुकूल नहीं है, अतः आप कुपित न हों। (आचारांग भाष्य, पृ. ३५८) शास्त्र में मिथ्यादृष्टि के साथ संस्तव, अतिपरिचय, प्रशंसा तथा प्रतिष्ठा-प्रदान को रत्नत्रय साधना को दूषित करने का कारण बताया गया है। अतः 'परं आढायमाणे' शब्द सम्पर्क-निषेध का वाचक समझना चाहिए।
Elaboration-In the religious order of Shraman Bhagavan Mahavir, the terms samanujna (conformists) and asamanujna (nonconformists) were used in order to define the codes of relationship between the ascetics during the period of practices. Samanujna (conformist) is one who conforms to the principles, attire, and ascetic-routine mentally and in conduct and asamanujna (non
conformists) is one who does not conform to the principles, attire, _and ascetic-routine mentally and in conduct. * आचारांग सूत्र
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Illustrated Acharanga Sutra
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