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| चउत्थो उद्देसओ
चतुर्थ उद्देशक
LESSON FOUR
गौरव-त्यागी
१९१. एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुब्वेण वाइया तेहिं महावीरेहि पण्णाणमंतेहिं।
तेसिंतिए पण्णाणमुवलब्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समादियंति।
वसित्ता बंभचेरंसि आणं 'तं णो' त्ति मण्णमाणा-अग्घायं त सोच्चा णिसम्म ‘समणुण्णा जीविस्सामो' एगे णिक्खम्म-ते असंभवंता विडज्झमाणा कामेसु गिद्धा अज्झोववण्णा समाहिमाघयमझोसयंता सत्थारमेव फरुसं वदति।
१९१. इस प्रकार उन महान् वीर और प्रज्ञावान् (गुरुओं) द्वारा वे शिष्य दिन-रात क्रमशः प्रशिक्षित होते हैं। . उन (आचार्यादि) के पास विशुद्ध ज्ञान को पाकर (अभिमानवश) उपशमभाव को
छोड़कर कुछ शिष्य परुषता-(कठोर) का आचरण करने लगते हैं। (गुरुजनों का अनादर करने लगते हैं।)
वे गुरुकुल वास में रहते हुए भी आचार्यादि की आज्ञा को 'यह तीर्थंकरों की आज्ञा नहीं है', ऐसा मानते हैं। कुछ पुरुष आख्यात-गुरुजनों का उपदेश सुनकर, समझकर 'हम उत्कृष्ट संयमी जीवन जीयेंगे' इस प्रकार का संकल्प लेकर प्रव्रजित होते हैं, किन्तु वे अपने संकल्प के प्रति सुस्थिर नहीं रहते। वे (कषाय-ईर्ष्या की अग्नि से) जलते रहते हैं, काम-भोगों में गृद्ध या (ऋद्धि, रस और सुख की संवृद्धि में) लोलुप बनकर तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित समाधिभाव को नहीं अपनाते, शास्ता गुरुजनों को भी वे कठोर वचन कह देते हैं। ABANDONING PRIDE ____191. This way those disciples are step by step taught and trained day and night by those great, brave and sagacious teachers.
After acquiring authentic knowledge from them, some disciples (out of conceit) lose their composure or serenity and become rude (start showing disrespect to the seniors and teachers). धुत : छठा अध्ययन
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Dhut : Sixth Chapter
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