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(११) अनियत-अप्रतिबद्ध विहारी। (१२) अन्त-प्रान्तभोजी, ऊनोदरी आदि तप करने वाला। (१३) अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों को सम्यक् प्रकार सहन करने वाला।
अप्पलीयमाणे-वृत्तिकार ने अप्रलीयमान का अर्थ किया है-'काम-भोगों में या माता-पिता आदि स्वजन लोक में अनासक्त'। ___ 'अतिअच्च सव्वओ संग-संग' का अर्थ है-आसक्ति या ममत्वयुक्त सम्बन्ध। वह दो प्रकार के हैं-सजीव सम्बन्ध (माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि) और निर्जीव (सांसारिक भोगों आदि) पदार्थों के प्रति आसक्तिधुतवादी मुनि-संग-परित्याग की प्रेरक इस भावना का आलम्बन करे-‘णं महं अत्थि"-मेरा कोई नहीं है, मैं आत्मा अकेला हूँ।' इस प्रकार से एकत्वभावना का अनुप्रेक्षण करे।
केवल सिर मुंडा लेने से ही कोई मुण्डित या श्रमण नहीं कहला सकता, कषायों और इन्द्रियों को भी वश में करना आवश्यक है। इसीलिए यहाँ 'सव्वओ मुंडे' 'सर्वतः मुण्ड' कहा है। स्थानांगसूत्र में क्रोधादि चार कषायों, पाँच इन्द्रियों एवं सिर से मुण्डित होने वाले को सर्वथा मुण्ड कहा गया है।
(स्थानांग १०) ___वृत्तिकार ने वध, आक्रोश आदि परीषहों के समय पाँच प्रकार से चिन्तन करके धैर्य रखने की प्रेरणा दी है
(१) यह पुरुष किसी यक्ष (भूत-प्रेत) आदि से ग्रस्त है। (२) यह व्यक्ति पागल है। (३) इसका चित्त दर्प से युक्त है।
(४) किसी जन्म में किये हुए मेरे कर्म उदय में आये हैं, तभी तो यह पुरुष मुझको संताप देता है।
(५) उदय में आये कष्ट समभाव से सहन किये जाने पर कर्मों की निर्जरा (क्षय) होगी।
परीषह के दो प्रकार बताये गये हैं-अनुकूल और प्रतिकूल। जिनके लिए 'एगतरे-अण्णतरे' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इस पंक्ति में भी पुनः परीषह. के दो प्रकार बताये है-'हिरी' और 'अहिरीमणा'। हिरी का अर्थ लज्जा है। जिन परीषहों से लज्जा का अनुभव हो, जैसे-याचना, अचेल आदि वे 'हीरिजनक' परीषह कहलाते हैं तथा शीत, उष्ण आदि जो परीषह अलज्जाकारी हैं, उन्हें 'अहिरीमना' परीषह कहते हैं। वृत्तिकार ने 'हारीणा', 'अहारीणा' इन दो पाठान्तरों को मानकर इनके अर्थ क्रमशः यों भी किये हैं-'सत्कार, पुरस्कार आदि जो परीषह मन को आह्लादित करने वाले हैं, वे ‘हारी' परीषह तथा जो परीषह प्रतिकूल होने के कारण मन के लिए
धुत: छठा अध्ययन
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Dhut: Sixth Chapter
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