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PALASAROLATOPAROSAROBAREKOPROPHETIRUS
Unable to endure intolerable afflictions, they give up (their ascetic equipment like-) garb,' pots, blankets and asceticbroom (abandoning the ascetic way).
A person having fondness for various carnal pleasures drifts away from the ascetic path. Then he may embrace death at once, within a muhurt (48 minutes) or any time (the separation of soul and body may occur in spite of not desiring so).
Thus their carnal desires, fraught with obstacles and contradictions, remain ever insatiated (before seeing the end of these desires their life is terminated). ___ विवेचन-प्रथम उद्देशक में स्वजन-संग परित्यागी धुत का वर्णन किया गया है। इस उद्देशक में काम-भोग परित्यागी तथा संयम में पराक्रमशील धुत का वर्णन है। जब वह स्वजनों का त्यागकर दीक्षा लेता है तो रागातुर स्वजन आक्रन्दन करते हैं। उपशम भाव धारण कर वह संयम में सथा ब्रह्मचर्य में रमण करता है। वह वसु अर्थात् वीतराग धर्म तथा अनुवसु अर्थात् सराग-संयम, दोनों को ही यथार्थ रूप में जानता है। वृत्तिकार ने वसु से महाव्रती साधु तथा अनुवसु से अणुव्रतधारी श्रावक; ऐसा भी अर्थ किया है।
जो सभी पदार्थों का सयोग छोड़कर, उपशम प्राप्त करके, ब्रह्मचर्य में रहकर अथवा आत्मा में विचरण करके, धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी मोहोदयवश धर्म-पालन में अशक्त बन जाते हैं उनके लिए कहा है-'अहेगे तमचाइ कुसीला' धर्म-पालन में अशक्त होने के कारण ही वे कुशील (कुचारित्री) होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जिस साधक ने बाहर से पदार्थ को छोड़ दिया, कषायों का उपशम भी किया, ब्रह्मचर्य भी पालन किया, शास्त्र पढ़कर धर्मज्ञाता भी बन गया, परन्तु अन्दर से यह सब नहीं हुआ। अन्तर में पदार्थों को पाने की ललक है, निमित्त मिलते ही कषाय भड़क उठते हैं, ब्रह्मचर्य भी केवल शारीरिक है या गुरुकुलवास भी औपचारिक है, धर्म के अन्तरंग को स्पर्श नहीं किया, इसलिए बाहर से धूतवादी एवं त्यागी प्रतीत होने पर भी अन्तर से अधूतवादी एवं अत्यागी ‘अचाइ' है। - ‘वत्थं पडिग्गहँ अवितिण्णा'-वृत्तिकार इस पद का आशय स्पष्ट करते हुए कहते हैं-करोड़ों भवों में दुष्प्राप्य मनुष्य-जन्म को पाकर, संसार-सागर को पार करने में समर्थ बोधि-नौका को अपना कर, मोक्ष-तरु के बीज रूप सर्व विरति-चारित्र को अंगीकार करके भी, काम की दुर्निवारता, इन्द्रिय-विषयों की लोलुपता और अनेक जन्मों के कुसंस्कारों के कारण साध्वाचार से पतित होकर कई व्यक्ति मुनिधर्म (धूतवाद) को छोड़ बैठते हैं। उनमें से कई तो वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरणों को छोड़ देते हैं और देशविरति धर्म, श्रावकधर्म अंगीकार कर लेते हैं, कुछ केवल सम्यक्त्व का आलम्बन लेकर दर्शन-श्रावक बन जाते हैं और कोई गृहस्थ या अन्यलिंगी बन जाते हैं। धुत : छठा अध्ययन
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Dhut: Sixth Chapter
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