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right. But for him who believes it to be wrong, whether in reality it is right or wrong, (effectively) due to his biased attitude (influenced by attachment and aversion) it is wrong.
A man with impartial attitude should tell to one having biased attitude-to attain rightness be impartial. ___This way (through practice of impartiality) the ambiguity (of right and wrong) is removed.
You should observe the progress of the active (in discipline)
and dull (in discipline). Say You should never join the ranks of the ignorant (always be
sagacious). * विवेचन-सब श्रमण प्रत्यक्षज्ञानी नहीं होते और न ही सबका ज्ञान एक समान होता है। * परिणामों/अध्यवसायों की धारा भी सबकी एक समान नहीं होती है। अतीन्द्रिय (अमूर्त) पदार्थों
के विषय में तो वह 'तमेव सच्चं.' सूत्र का आलम्बन लेकर सम्यक् (सत्य) का ग्रहण और निश्चय कर सकता है, किन्तु जो पदार्थ इन्द्रिय-प्रत्यक्ष हैं, या जो व्यवहार-प्रत्यक्ष हैं, उनके विषय में सम्यक्-असम्यक् का निर्णय कैसे किया जाय? इसके सम्बन्ध में सूत्र १६ में बताया है।
पहले तो साधक के दीक्षाकाल और पश्चात्काल को लेकर सम्यक्-असम्यक् की विवेचना की है कि कुछ श्रमण दीक्षाकाल में तो सम्यक् श्रद्धायुक्त होते हैं किन्तु उत्तरकाल में किसी कारण उनकी श्रद्धा में शिथिलता आने से असम्यक् हो जाते हैं। इसकी चौभंगी बताई गई है। फिर उसे व्यवहार एवं निश्चय की दृष्टि से बताया है कि कोई तत्त्व तथा आचार व्यवहार में सम्यक् प्रतीत होता है, किन्तु निश्चय में वह असम्यक् होता है; इसकी भी चौभंगी बनती है। इन चारों प्रकारों के सम्बन्ध में र शास्त्रकारों ने एक कसौटी बताई है कि जिसका अध्यवसाय शुद्ध है, जिसकी दृष्टि मध्यस्थ एवं की निष्पक्ष है, जिसका हृदय शुद्ध व सत्यग्राही है, वह व्यवहारनय से किसी भी वस्तु, व्यक्ति या 9 व्यवहार के विषय को सम्यक् मान लेता है, तो वह सम्यक् ही है और असम्यक् मान लेता है तो - असम्यक् ही है, फिर चाहे प्रत्यक्षज्ञानियों की दृष्टि में वास्तव में वह सम्यक् हो या असम्यक् । ___ 'उवेहाए' शब्द का संस्कृत रूप होता है-उत्प्रेक्षया। जिसका अभिप्राय शुद्ध अध्यवसाय या
मध्यस्थ दृष्टि, निष्पक्ष सत्यग्राही बुद्धि, शुद्ध सरल हृदय से पर्यालोचन करना है। * गति के दो अर्थ हैं-'दशा' या 'स्वर्ग मोक्षादिगति'। यहाँ संधि का अर्थ-सम्यग्दर्शन की * आराधना है। लोकसार : पंचम अध्ययन . (२८१ )
Lokasara: Fifth Chapter
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