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Only they (who renounce possessions) are celibate. So I say.
I have heard, I have experienced, that bondage and liberation exist only in your soul.
157. The detached (from possessions) ascetic should tolerate afflictions till the long- night ( death).
Those who are not alert (under stupor) should be considered as out of the ascetic religion. Be alert and move around (progress towards liberation).
Properly (steadfastly) follow this ascetic religion (conduct).
-So I say.
विवेचन-‘सूवणीयं ति णच्चा' के स्थान पर चूर्णि में पाठ है - 'सुत अणुविचिंतेति णच्चा' । अर्थ किया गया है- “सुते अणुविचिंतित्ता गणधरेहिं णच्चा " - अर्थात् सूत्र से तदनुरूप चिन्तन करके गणधरों द्वारा प्रस्तुत है, इसे जानकर | 'अज्झत्थं' के बदले चूर्णि में पाठ है - 'अज्झत्थितं ।' अर्थ किया है- “ऊहितंगुणितं चिन्तितं ति ।" 'अध्यात्मितं' का अर्थ होता है - ऊहित, गुणित या चिन्तित। यानी (मन में) ऊहापोह कर लिया है, चिन्तन कर लिया है, या गुणन कर लिया है।
'एतेसु चेव बंभचेर' इस पद का भाव यह है कि जो परिग्रह का त्यागी होता है, वही ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता है। आचार्यों ने ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ किये हैं - ( 9 ) आत्म-रमण, (२) जननेन्द्रिय-संयम - मैथुन त्याग, तथा (३) गुरुकुल वास । पदार्थों के प्रति मूर्च्छा व आसक्ति रखने वाला आत्म- रमण नहीं कर सकता। वैसा आसक्त व्यक्ति इन्द्रियों पर संयम भी नहीं कर सकता और न ही वह गुरुजनों के अनुशासन में रह सकता है। इसलिए यहाँ परिग्रह का त्याग करने पर ही ब्रह्मचर्य की साधना की शक्यता बताई है।
दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि भगवान पार्श्वनाथ के शासन में ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को सम्मिलित कर चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा की गई थी । अतः अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का परस्पर अटूट सम्बन्ध माना गया है।
'परम चक्खु' के दो अर्थ हैं - जिसके पास परम ज्ञानरूपी नेत्र है, अथवा परम मोक्ष पर ही जिसकी दृष्टि टिकी है वह परम चक्षुष्मान् । ( आचारांग वृत्ति, पत्र १८२ )
॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
Elaboration-Suvaniyam ti nachcha-In the commentary (Churni) there is an alternative reading-'suta anuvichinteti nachcha'. The meaning given is-It has been presented by the
आचारांग सूत्र
( २५८ )
Illustrated Acharanga Sutra
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