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#ACT AC24 ५०
सममाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाई पकप्पेंति ।
अहो य राओ य जयमाणे धीरे सया आगयपण्णाणे । पत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमिज्जासि ।
त्ति बेमि ।
॥ पढमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥
१३४. वह अर्हद्भाषित अहिंसाधर्म सत्य है, तथ्य है, तथारूप है। यह (अहिंसा धर्म ) इस अर्हत्प्रवचन में सम्यक् प्रकार से प्रतिपादित है ।
साधक उस अर्हद्भाषित धर्म को ग्रहण करके इसका आचरण करने में अपनी शक्तियों को छिपाए नहीं और न ही उसे छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर उसका आचरण करे ।
दीखने वाले इष्ट-अनिष्ट रूपों से विरक्त रहे । लोकैषणा में न भटके।
जिस मुमुक्षु को यह अहिंसा धर्म ज्ञात नहीं है, उसे अन्य तत्त्व का ज्ञान कैसे होगा ? यह जो अहिंसा धर्म कहा जा रहा है, वह दृष्ट है, श्रुत है, मत है और विशेष रूप से ज्ञात (अनुभूत) है।
हिंसा में रचे-पचे रहने वाले और उसी में लीन रहने वाले मनुष्य बार-बार जन्म लेते रहते हैं।
प्रज्ञावान, धीर साधक रात-दिन यतनापूर्वक जीते हैं।
उन्हें देखो जो प्रमत्त हैं। वे धर्म से बाहर हैं। इसलिए वह अप्रमत्त होकर सदा अहिंसादि रूप धर्म में पराक्रम करे।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
134. That ahimsa religion is true and real and is so stated by Arhats. It is rightly propagated in the words of the Arhats.
A seeker should accept the religion given by Arhats and should neither restrain himself in following the same in his conduct, nor should he abandon it. He should understand the true form of religion and behave accordingly.
He should remain detached from good or bad forms. He should not get lost in mundane desires.
सम्यक्त्व : चतुर्थ अध्ययन
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Samyaktva: Forth Chapter
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