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कभी (अति भोगोपभोग के कारण अथवा भोगकाल में) उसके शरीर में रोग की पीड़ा उत्पन्न होने लगती है।
जिन स्वजन-स्नेहियों के साथ वह रहता आया है, वे ही उसे (रोग आदि के कारण घृणा करके) पहले छोड़ देते हैं। बाद में वह भी अपने स्वजन-स्नेहियों को छोड़ देता है। ___ हे पुरुष ! वे तेरी रक्षा करने और तुझे शरण देने में समर्थ नहीं हैं। और तू भी उनकी रक्षा व शरण के लिए समर्थ नहीं है।
68. (A man) after his own use saves (wealth), collects (thingsoe like milk and curd), stores (things like sugar and butter) and e* preserves them for his progeny. He uses these to feed them.
Some time (as a consequence of over indulgence or during that) ailments infest his body and cause pain.
First the relatives with whom he lived abandon him (repulsed by his ailing condition). Later he too abandons them.
Know O man ! Those kinsmen are not capable of protecting you or giving you refuge. Neither are you capable of protecting them or giving them refuge. आत्म-हित की साधना
६९. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं। अणभिकंतं च खलु वयं संपेहाए, खणं जाणाहि पंडिए !
जाव सोय-पण्णाणा अपरिहीणा जाव णेत्त-पण्णाणा अपरिहीणा जाव घाण-पण्णाणा अपरिहीणा जाव जीह-पण्णाणा अपरिहीणा जाव फास-पण्णाणा अपरिहीणा, इच्चेएहि विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयर्ल्ड सम्म समणुवासेज्जासि। त्ति बेमि।
॥ पढमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ ६१. सुख और दुःख-प्रत्येक प्राणी का अपना-अपना होता है यह जानकर जो वय (यौवन एवं शक्ति) अभी बीती नहीं है, उसका विचारकर। हे पण्डित ! क्षण (समय)
को/अवसर को पहचान। ___ जब तक तेरा श्रोत्र का परिज्ञान (श्रोत्रेन्द्रिय की शक्ति) क्षीण नहीं हुआ है, इसी प्रकार नेत्र-परिज्ञान, घ्राण-परिज्ञान, जिह्वा-परिज्ञान और स्पर्श-परिज्ञान अक्षीण है, तब तक इन विभिन्न परिज्ञानों के परिपूर्ण रहते हुए आत्म-हित के लिए अथवा मोक्ष के लिए सम्यक् र प्रकार से प्रयत्न कर। -ऐसा मैं कहता हूँ।
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Illustrated Acharanga Sutre
आचारांग सूत्र
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