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अनुयोगविषयक ग्रन्थों में ही नहीं बल्कि जैन न्याय तथा भारतवर्षीय तत्कालीन समग्र दार्शनिक सिद्धांतोंकी चर्चावाले ग्रन्थों में भी बहे हुए हैं । इतना करके ही उनकी प्रतिभा मौन न हुई, उसने योगमार्गमें एक ऐसी दिशा दिखाई जो केवल जैन योगसाहित्यमें ही नहीं बल्कि आर्यजातीय संपूर्ण योगविषयक साहित्यमें एक नई वस्तु है। जैनशास्त्रमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका प्राचीन वर्णन चौदह गुणस्थानरूपसे, चार ध्यान रूपसे और बहिरात्म आदि तीन अवस्था
ओंके रूपसे मिलता है। हरिभद्रसरिने उसी आध्यात्मिक विकासके क्रमका योगरूपसे वर्णन किया है । पर उसमें उन्होंने जो शैली रक्खी है वह अभीतक उपलब्ध योगविषयक साहित्यमेंसे किसी भी ग्रंथमें कमसे कम हमारे देखने में तो नहीं आई है। हरिभद्रसरि अपने ग्रन्थों में अनेक योगियोंका नामानिर्देश करते हैं। एवं योगविषयक ग्रन्थोंका उल्लेख करते विषयक-पञ्चवस्तु, धर्मबिन्दु आदि ३, धर्मकथानुयोगविषयकसमराइचकहा आदि ४ ग्रन्थ मुख्य हैं।
१ अनेकान्तजयपताका, षड्दर्शनसमुच्चय, शाखवातासमुच्चय आदि ।
२ गोपेन्द्र ( योगबिन्दु श्लोक. २००) कालातीत (योगविन्दु श्लोक ३००)। पतञ्जलि, भदन्तभास्करबन्धु, भगवदन्त(च). वादी (योगदृष्टि० श्लोक १६ टीका)।
३ योगनिर्णय आदि ( योगदृष्टि० श्लोक १ टीका )।