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________________ । [४६] परमप्रकर्ष मान कर तद्द्वारा जगउद्धारादिकी सब व्यवस्था घटा दी है। ३ योगशास्त्र दृश्य जगत्को ने तो जैन, वैशेषिक, . नैयायिक दर्शनोंकी तरह परमाणुका परिणाम मानता है, न शांकरवेदान्तदर्शनकी तरह ब्रह्मका विवर्त या ब्रह्मका परिणाम ही मानता है, और न बौद्धदर्शनकी तरह शून्य या विज्ञानात्मक ही मानता है, किन्तु सांख्य दर्शनकी तरह वह उसको प्रकृतिका परिणाम तथा अनादि-अनन्त-प्रवाह: स्वरूप मानता है। ४ योगशास्त्रमें वासना, क्लेश और कर्मका नाम ही संसार, तथा वासनादिका अभाव अर्थात् तिनके स्वरूपावस्थानका नाम ही मोक्ष है। उसमें संसार का मूल कारण अविद्या और मोक्षका मुख्य हेतु सम्यग्दर्शन अर्थात् योगजन्य विवेकख्याति माना गया है। महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशाल ता-यह पहले १ यद्यपि यह व्यवस्था मूल योगसूत्रमें ना ही है, परन्तु भाष्यकार तथा टीकाकारने इसका उपपादन किया है । देखो पातश्चल यो. सू. पा. १ सू. २४ भाष्य तथा टीका। २ तदा द्रष्टुः स्वरूपावस्थानम् । १-३ योगसूत्र।
SR No.007442
Book TitleYogdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlal Sanghavi
Publication Year
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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