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[३६] राज नामक ग्रन्थ भी है। वैदिक जैन और बौद्ध संप्रदायके योगविषयक साहित्यका हमने बहुत संक्षेपमें अत्यावश्यक परिचय कराया है, पर इसके विशेष परिचयके लिये-कॅटलोगस कॅटलॉगॉरम, चो० १ पृ० ४७७ से ४८१ पर जो योगविषयक ग्रन्थोंकी नामावलि है वह देखने योग्य है। विहासि; सतो च संपजानो सुखं च कायेन पटिसंवेदेसिं, यं तं अरिया आचिक्खन्ति-उपेक्खको सतिमा सुखविहारीऽति ततियज्झानं उपसंपन्ज विहार्सि; सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुबन सोमनस्स दोमनस्सानं अत्यंगमा अदुक्लमसुखं उपेक्खासति पारिसुद्धिं चतुत्थज्झानं उपसंपन्ज मझिमनिकाये भयभेखसुत्तं विहासिं ।
इन्हीं चार ध्यानोंका वर्णन दीघनिकाय सामञ्चकफलसुत्तमें है । देखो प्रो. सि. वि. राजवाडे कृत मराठी अनुवाद पृ. ७२ ।
वही विचार प्रो. धर्मानंद कौशाम्बी लिखित वुद्धलीलासार संग्रहमें है। देखो पृ. १२८ । ___जैनसूत्रमें शुक्लध्यानके भेदोंका विचार है, उसमें उक्त सवितर्क आदि चार ध्यान जैसा ही वर्णन है। देखो तत्त्वार्थ अ०६ सू० ४१-४४।। _योगशास्त्रमें संप्रज्ञात समाधि तथा समापत्तिओंका वर्णन है। उसमें भी उक्त सवितर्क निर्वितर्क आदि ध्यान जैसा ही विचार है । पा. सू. पा. १-१७, ४२, ४३, ४४ ।
थिआडोरे आउटकृत लिझिगमें प्रकाशित १८९१ की आवृत्ति ।