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[१४] योगकी दो धारायें--व्यवहारमें किसी भी वस्तुको परिपूर्ण स्वरूपमें तैयार करनेके लिये पहले दो बातोंकी आवश्यकता होती है। जिनमें एक ज्ञान और दूसरी क्रिया है। चितेरेको चित्र तैयार करनेसे पहले उसके स्वरूपका, उसके साधनोंका और साधनोंके उपयोगका ज्ञान होता है, और फिर वह ज्ञान के अनुसार क्रिया भी करता है तभी वह चित्र तैयार कर पाता है। वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्रमें भी मोक्षके जिज्ञासुके लिये बन्धमोक्ष, आत्मा और बन्धमोक्षके कारणोंका तथा उनके परिहार, उपादानका ज्ञान होना जरूरी है। एवं ज्ञानानुसार प्रवृत्ति भी आवश्यक है। इसी से संक्षेपमें यह कहा गया है कि "ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः" योग क्रियामार्गका नाम है । इस मार्गमें प्रवृत्त होनेसे पहले अधिकारी, प्रोत्सा आदि आध्यात्मिक विषयोंका आरंभिक ज्ञान शास्त्रसे, सत्संगसे, या स्वयं प्रतिभा द्वारा कर लेता है। यह तचाधिषयक प्राथमिक ज्ञान प्रवर्तक ज्ञान कहलाता है। प्रवर्तको ज्ञान प्राथमिक दशाका ज्ञान होनेसे सवको एकाकार और 'एकसा नही हो सकता। इसीसे योगमार्गमें तथा उसके । “णामस्वरूप मोक्षस्वरूपमें तात्त्विक भिन्नता न होने पर भ योगमार्गके प्रवर्तक प्राथमिक ज्ञोजमें कुछ भिन्नता अनिव है । इस