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[१३४] इनके लक्षण इस प्रकार हैं-(१) जिस क्रिया प्रीति इतनी अधिक हो कि अन्य सब काम छोड कर सिर्फ उसी क्रियाके लिए तीन प्रयत्न किया जाय तो वह क्रिया प्रीतिअनुष्ठान है । (२) प्रीति-अनुष्ठान ही भक्ति-अनुष्ठान है। अन्तर दोनोंमें इतना ही है कि प्रीति-अनुष्ठानकी अपेक्षा भक्ति-अनुष्ठानमें आलम्बनरूप विषयके प्रति विशेष आदरबुद्धि होनेके कारण प्रत्येक व्यापार अधिक शुद्ध होता है । जैसे पत्नी और माता दोनोंका पालन, भोजन, वस्त्र आदि एक ही प्रकारसे किया जाता है परन्तु दोनों के प्रति भावका अन्तर है। पत्नीके पालनमें प्रीतिका साव और माताके पालनमें भक्तिका भाव रहता है, वैसे ही बाहरी व्यापार समान होनेपर भी प्रीति-अनुष्ठान तथा भक्ति-अनुष्ठानमें भावका भेद रहता है । (३) शास्त्रकी ओर दृष्टि रख करके सब कार्यों में साधु लोगोंकी जो उचित प्रवृत्ति होती है वह वचनानुष्ठान है।४)जब संस्कार इतने दृढ हो जायँ कि प्रवृत्ति करते समय शास्त्रका स्मरण करनेकी आवश्यकता ही न रहे अर्थात् जैसे चन्दनमें सुगंध स्वाभाविक होती है वैसे ही संस्कारोंकी दृढताके कारण प्रत्येक धार्मिक नियम जीवनमें एकरस हो जाय तब असङ्गानुष्ठान होता है। इसके अधिकारी जिनकल्पिक साधु होते हैं। वचनानुष्ठान और असङ्गानुष्ठानमें फके इतना ही है कि पहला तो शास्त्रकी प्रेरणासे किया जाता है और दूसरा उसकी प्रेरणाके सिवाय