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[३] ग्रन्थकारने स्वयं ही कर दिया है। भगवान् पतंजलिने अपने योगसूत्र में चित्तवृत्ति निरोधको ही योग कहा है, और उस ग्रन्थमें सर्वत्र योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है । श्रीमान् हरिभद्र सुरिने अपने योग विषयक सभी ग्रेन्थों में मोक्ष प्राप्त कराने वाले धर्मव्यापारको ही योग कहा है । और उनके उक्त सभी ग्रन्थों में योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है । चित्तवृत्तिनिरोध और मोक्षप्रापक धर्मव्यापार इन दो वाक्योंके अर्थमें स्थूल दृष्टि से देखने पर बडी भिन्नता मालूम होती है, पर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उनके अर्थकी अभिन्नता स्पष्ट मालूम हो जाती है, क्यों कि 'चित्तवृत्तिनिरोध' इस शब्दसे वही क्रिया या व्यापार विवक्षित है जो मोक्षके लिये अनुकूल हो और जिससे चित्तकी संसाराभिमुख धृत्तियां रुक जाती हों। 'मोक्षप्रापक धर्मव्यापार' इस शब्दसे भी वही क्रिया विवक्षित है। अत एव प्रस्तुत विषयमें योग शब्दका अर्थ स्वाभाविक समस्त श्रात्मशक्तियोंका पूर्ण विकास करानेवाली
१ पा. १ सू. २-योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । २ योगबिन्दु श्लोक ३१
अध्यात्म भावनाऽऽध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ योगविंशिका गाथा ॥१॥