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गाथा १३-जो देशविरतिपरिणामवाले हों वे चैत्यवन्दनके योग्य अधिकारी हैं। क्योंकि चैत्यवन्दनसत्र में " कार्य वोसिरामि " इस शब्दसे जो कायोत्सर्ग करनेकी प्रतिज्ञा सुनी जाती है वह विरतिके परिणाम होनेपर ही घट सकती है। इसलिए यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि देशविरति परिणामवाले ही चैत्यवन्दनके योग्य अधिकारी हैं।
खुलासा-चैत्यवन्दनके अंदर " ताव काय, ठाणेणं " इत्यादि पाठके द्वारा कायोत्सर्गकी प्रतिज्ञा की जाती है। कायोत्सर्ग यह कायगुप्तिरूप विरति है, इसलिए पिरति परिणामके सिवाय चैत्यवंदन-अनुष्ठान करना अनधिकारचेष्टामात्र है। देशपिरतिचालेको चैत्यवन्दनका अधिकारी कहा है सो मध्यम अधिकारीका सूचनमात्र है। जैसे तराजूकी डण्डी वीचमें पकडनेसे उसके दोनों पलडे पकडमें आ जाते हैं वैसे ही मध्यम अधिकारीका कथन करनेसे नीचे
और ऊपरके अधिकारी भी ध्यानमें आ जाते हैं । इसका फलित अर्थ यह है कि सर्वविरतिवाले मुनि तो चैत्यवन्दनके ताविक अधिकारी हैं और अपुनर्वधक या सम्यग्दृष्टि व्यवहारमात्रसे उसके अधिकारी हैं, परन्तु जो कमसे कम अपुनषेधक भावसे भी खाली हैं अतएव जो विधिबहुमान करना नहीं जानते वे सर्वथा चैत्यवन्दनके अनधिकारी हैं।