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साधनों की कमी होनेपर भी ऐसा उल्लास प्रकट हो जिससे शास्त्रोक्त विधिके प्रति बहुमान - पूर्वक अल्पमात्र योगाभ्यास किया जाय वह अवस्था इच्छायोग है । ( २ ) जिस अवस्थामें वीर्योल्लास की प्रबलता हो जानेसे शास्त्रानुसार सांगोपांग योगाभ्यास किया जाय वह प्रवृत्तियोग है । ( ३ ) प्रवृत्तियोग ही स्थिरतायोग है, पर अंतर दोनोंमें इतना ही है कि प्रवृत्तियोगमें अतिचार अर्थात् दोपका डर रहता है और स्थिरतायोगमें डर नहीं रहता । ( ४ ) सिद्धियोग उस अवस्थाका नाम है जिसमें स्थानादि योग उसका आचरण करनेवाले आत्मामें तो शांति पैदा करे ही, पर उस आत्मा के संसर्ग में आनेवाले साधारण प्राणियोंपर भी शांतिका असर डाले । सारांश यह है कि सिद्धियोगवालेके संसर्ग में आनेवाले हिंसक प्राणी भी हिंसा करना छोड़ देते हैं और असत्यवादी भी असत्य बोलना छोड़ देते हैं अर्थात् उनके दोष शांत हो जाते हैं ।
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उक्त इच्छा आदि योगभेदोंके हेतुओंको कहते हैंगाथा ७ – ये विविध प्रकारके इच्छा आदि योग प्रस्तुत स्थान आदि योगकी श्रद्धा, प्रीति आदिके सम्बन्धसे भव्य प्राणिको तथाप्रकारके क्षयोपशमके कारण होते हैं |
खुलासा-इच्छा आदि चारों योग आपस में एक दूसरेसे भिन्न तो हैं ही, पर उन सबमेंसे एक एक योगके