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है । (५) रूपी द्रव्यके आलंबनसे रहित जो शुद्ध चैतन्यमात्रकी समाधिं वह अनालंबन है । स्थान तो स्वयं ही क्रियारूप है और सूत्रका भी उच्चारण किया जाता है इसीलिए स्थान तथा ऊर्णको कर्मयोग कहा है । ऊपर की हुई व्याख्यासे यह स्पष्ट है कि अर्थ, आलंबन और अनालंवन ये तीनों ज्ञानयोग हैं। योगका मतलब मोक्षके कारणभूत आत्म - व्यापारसे है | स्थान आदि आत्म-व्यापार मोक्षके कारण हैं इसलिए उनकी योग-रूपता सिद्ध है ॥
स्थान आदि उक्त पाँच योगके अधिकारियोंको बतलाते हैं
गाथा ३ - देशचारित्रवाले और सर्वचारित्रवालेको यह स्थान आदि योग अवश्य होता है | चारित्रवालेमें ही योगका संभव होनेके कारण जो चारित्ररहित अर्थात् अनर्बंध और सम्यग्दृष्टि हो उसमें उक्त योग वीजमात्ररूपसे होता है ऐसा कोई प्राचार्य मानते हैं ॥
खुलासा - योग क्रियारूप हो या ज्ञानरूप पर वह चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशम अर्थात् शिथिलता के होनेपर अवश्य प्रकट होता है । इसीलिए चारित्री ही योगका अधिकारी है, और यही कारण है कि ग्रन्थकार हरिभद्रसू
१ जो फिर से मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांधता वह अपुनर्बंधक कहलाता है ।