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________________ [१०६ ] सूत्र ३२-भाष्यकारने दो प्रकारका शौच कहा है, बाह्य और आभ्यंतर । शुद्ध भोजन, पान तथा मिट्टी और जलसे होने वाला शौच बाह्य शौच है, और चित्तके दोपोंका संशोधन आभ्यंतर शौच है। जैन परिभाषाके अनुसार बाह्य शौच द्रव्यशौच कहलाता है और आभ्यंतर शौच भावशौच कहलाता है। जैन शास्त्रमें भावशौचको वाधित न करनेवाला ही द्रव्यशौच ग्राह्य माना गया है। उदाहरणार्थ शृंगार आदि वासनासे प्रेरित होकर जो स्नान आदि शौच किया जाता है वह ग्राह्य नहीं है। ___सूत्र ५५- इसके भाष्यमें इन्द्रियोंकी परमवश्यताका स्वरूप और उसका उपाय ये दो बातें मुख्य हैं। भाष्यकारने अनेक मतभेद दिखा कर अन्तमें अपने मतसे परमवश्यताका स्वरूप दिखाते हुए लिखा है कि इन्द्रियोंके निरोधको अर्थात् शब्दादि विषयोंके साथ इन्द्रियोंका संबंध रोक देनेको परमवश्यता (परमजय) कहते हैं । परमवश्यताका उपाय उन्होंने चित्त निरोधको माना है। ___इन दोनों बातोंके विषयमें जैन मान्यतानुसार मतभेद दिखाते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि-इन्द्रियोंका निरोध उनकी परमवश्यता नहीं है, किन्तु अच्छे या बुरे शब्द आदि विषयोंके साथ कर्ण आदि इन्द्रियोंका संबंध होनेपर भी तत्त्व ज्ञानके वलसे जो रागद्वेषका पैदा न होना वही इन्द्रियोंकी “परमवश्यता है। परमवश्यताका एक मात्र उपाय ज्ञान ही
SR No.007442
Book TitleYogdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlal Sanghavi
Publication Year
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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