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कर्ममें लागू पडता है, क्योंकि अन्य सभी कर्म विपाको - दयके सिवाय अर्थात् प्रदेशोंदयद्वारा भी भोगे जा सकते हैं ।
५ मरणके सिवाय अन्य अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि निमित्त भी कर्माशयके उद्बोधक होते हैं ।
६ मरण के समय अवश्य उदयमान होनेवाला कर्म यु ही है, इस लिये यदि प्रधानता माननी हो तो वह सिर्फ आयुष्कर्म में ही घटाई जा सकती है, अन्य कर्मों में नहीं ।
७ गौणकर्मका प्रधानकर्ममें आवापगमन होता है यह बात गोल - माल जैसी है। आवापगमनका पूरा भाव संक्रमणविधिको विना जाने ध्यानमें नहीं सकता, इस लिये कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थोंमेंसे संक्रमणका विचार जान लेना चाहिये ।
सूत्र १५ – सूत्रकारने संपूर्ण दृश्यप्रपंचको विवेकिके लिये दुःखरूप कहा है, इस कथनका नयदृष्टिसे पृथक्करण करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं किं दृश्यप्रपंच दुःखरूप है सो निश्चयदृष्टिसे, व्यवहारदृष्टिसे तो वह सुख दुःख उभयरूप है । इस पृथक्करण की पुष्टि वे सिद्धसेन दिवाकरके एक स्तुतिवाक्यसे करते हैं । उस वाक्यका भाव इस प्रकार है " हे वीतराग ! - तूने अनंत भवबीजको फेंक दिया है, और अनंत ज्ञान प्राप्त किया है, फिर भी तेरी कला न तो कम हुई है और न अधिक, तू तो समभाव अर्थात् एक रूपताको ही तारण, धारण
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