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[१६] कसे लेकर चौदहवें गुणस्थानतकमें आजाता है। इन दो गुणस्थानों में जो भवोपग्राही अर्थात् अघातिकर्मका संबन्ध रहता है वही संस्कार है । और उसीकी अपेक्षासे असंप्रज्ञातको संस्कारशेष समझना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें मतिज्ञानविशेषरूप संस्कारका संभव नहीं है अर्थात् उस समय द्रव्यमन होनेपर भी भावमन नहीं होता।।
सूत्र १६-सूत्रकारने विदेह और प्रकृतिलयोंमें जो भवप्रत्यय (जन्मसिद्ध) योगका पाया जाना कहा है उसकी संगति जैनमतके अनुसार लवसप्तम देवों-अनुत्तर विमानवासी-में करनी चाहिये, क्योंकि उन देवोंको जन्मसे ही ज्ञानयोगरूप समाधि होती है।
सूत्र २६-सूत्र २४, २५, २६ में ईश्वरका स्वरूप है। भाष्यकार और टीकाकारने ईश्वरके स्वरूपके विषयमें सूत्रकारका मंतव्य दिखलाते हुए. मुख्यतया उसके छह धर्म बतलाये हैं । जैसे-१ केवल संवगुणका प्रकर्षे, २ जगत्कतत्व, ३ एकत्व, ४ अनादिशुद्धता-नित्यमुक्तता, ५ अनुग्रहेच्छा और ६ सर्वज्ञत्व । ___ उपाध्यायजी उक्त धोंमेंसे (क) पहले दो धर्मोंको अर्थात् केवलसत्त्वगुणप्रकर्ष और जगत्कर्तृत्वको जैनदृष्टि से ईश्वरमें अस्वीकार ही करते हैं, (ख ) तीन धौंका अर्थात् एकत्व, अनादिशुद्धता और अनुग्रहेच्छाका कथंचित् समन्वय