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(११) वृत्ति और सटीक योगविशिका छपवाने के बाद भी उनका हिंदी सार पुस्तकके अन्तमें दिया गया है।सार कहनेका अभिप्राय यह है कि वह मूलका न तो अक्षरशः अनुवाद है और न अविकल भावानुवाद ही है। अविकल भावानुवाद नहीं है इस कथनसे यह न समझना कि हिंदी सारमें मूल ग्रंथका असली भाव छोड दिया है, जहाँतक होसका सार लिखने में मूल ग्रन्थके असली भावकी ओर ही खयाल रक्खा है। अपनी ओरसे कोई नई बात नहीं लिखी है पर मूल ग्रन्थमें जो जो बात जिस जिस क्रमसे जितने जितने संक्षेप या विस्तारके साथ जिस जिस ढंगसे कही गई है वह सब हिंदी सारमें ज्यों की त्यों लानेकी हमने चेष्टा नहीं की है। दोनों सार लिखनेका ढंग भिन्न भिन्न है इसका कारण मूल ग्रंथोंका विषयभेद और रचना भेद है।
पहले ही कहा गया है कि वृत्ति सब योग सूत्रोंके ऊपर नहीं है। उसका विषय आचार न होकर तत्वज्ञान है। उसकी भाषा साधारण संस्कृत न होकर विशिष्ट संस्कृत अर्थात् दार्शनिक परिभाषासे मिश्रित संस्कृत और वहभी नवीन न्याय परिभाषाके प्रयोगसे लदी है। अतएव उसका अक्षरशः अनुवाद या अविकल भावानुवाद करनेकी अपेक्षा हमको अपनी स्वीकृत पद्धति ही अधिक लाभदायक जान पडी है।वृत्तिका सार लिखनेमें यह पद्धति रखी गई है कि सूत्र या भाष्यके जिस जिसं मन्तव्य के साथ पूर्णरूपसे या अपूर्णरूपसे जैन दृष्टिके अनुसार वृत्तिकार मिल जाते हैं या विरुद्ध होते हैं उस उस मन्तव्यको उस उस स्थानमें पृथक्करण पूर्वक संक्षेपमें लिखकर नीचे वृत्तिकारका संवाद या विरोध क्रमशःसंक्षेपमें सूचित कर दिया है। सब जगह पूर्वपक्ष और उत्तर पक्षकी सब दलीलें सारमे नहीं
दी है। सिर्फ सार लिखने में यही ध्यान रक्खा गया है कि . . वृत्तिकार कीस बात पर क्या कहना चाहते हैं।