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वेरापंथ-मत समीक्षा।
विहार करते हैं। तो इसके दोषके भागी तुम्हारे हिसाबसे उपदेश देनेवाले तीर्थकर-गणधरादि ही होंगे।
ऐसे २ कई स्थानोंमें भविष्यके बडे लाभोंके लिये ही प्रभु तथा गणधरोंने आदेश-उपदेश किये हैं। परन्तु महानुभावो ! पूर्वोक्त कारणों में स्वरूप हिंसा है । और जहाँ अनुबन्ध हिंसा होती है, वहाँ ही उत्तरकालमें दुःख होता है । दशवकालिकसूत्रमें तथा सूयगडांगसूत्रमें अहिंसाधर्मकी प्ररूपणाकी हुई है । वह सर्वथा सबको मान्य है, परन्तु उसके यथार्थ स्वरूपको नहीं समझ करके एकान्त पक्षको स्वीकार करनेवाले. जैनदर्श नसे बहार हैं। क्योंकि मुनिराजोंने, अरिहंत-सिद्ध-साधुदेव तथा आत्माकी सासे पंचमहाव्रतोंके स्वीकार करनेके समय मन-वचन कायासे, नव प्रकारके जीवोंको हणुं नहीं हणावू नहीं, तथा हणे उसको अच्छा न जानुं, ऐसे ८१ भंगोंसे 'प्राणातिपातविरमण' व्रत लिया है, तथापि, आहार निहार-विहार व्याख्यान धर्म चर्चा, गुरुभक्ति तथा देवभक्ति वगैरह क्रियाओंमें हिंसा होती है। परन्तु इन कार्यों में अत्युतम निर्जरा होनेसे इसको हिंसा मानी नहीं है। यदि हिंसा मानली जाय, तो ८१ भंगोंमें दूषण आनसे मुनियोंको हजारों कष्टक्रियाएं करनेपर भी दुर्गतिमें जानेका ही समय आवे ।
प्रश्न-१४ जिनप्रतिमा श्रीजिनसारसी परूपते. हो सो बत्तीस सासत्रमें कांहीका हो तो पाठ बतलायें
उत्तर-जिनप्रतिमा जिनसमान है, तस्संबंधि रायपसेणी सूत्रके १९० पृष्ठमें 'धूवं दाउणं जिणवराणं' ऐसा पाठ है। तथा जीनाभिगम सूत्रकी लिखी हुई प्रति (जो आचार्य महा