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तेरापंथ-मन समीक्षा ।
श्री जिनेवरदेवने उपर लीखी यै सासत्रांम इंश्या कर्ण साफ मनाई की हैं।
उत्तर–दशवैकालिककी पहली गाथा तथा सूयगडांगसूत्रके पृष्ठ ९५ में पहले अध्ययनके चतुर्थ उद्देशेकी १० वी गाथा तथा ग्यारहवें अध्ययनकी (पृष्ठ ४२६ में) दशवी गाथागें 'किंचित्मात्र हिंसा न करनी' यह ज्ञानीका सार कहा है [ज्ञानकासार कहना भूल है ], यह बात हमको सर्वथा मान्य है । इस बात पर सर्वथा अमल भी होता है। क्योंकि तीर्थकरकी आज्ञामें धर्म है । जहाँ जहाँ तीर्थकरकी आज्ञा है, वहाँ वहाँ धर्म ही हैं। तीर्थकर महाराजने अनुकंपा लाकरके गोशाले जैसे शिष्याभासको बचाया । मेघकुमारने ससलाके जीवको बचाया ( देखो ज्ञातासूत्र ), परन्तु अफसोसकी बात है किआप लोग पूर्व कर्मके उदयसे सत्य बातको छोड करके, असत्यमें फँस गये हो । हिंसा-अहिंसाके स्वरूपको भी अभी तक नहीं समझ सके हो । उवाई मूत्रमें कोणिकराज बडे आडंबरसे चतुरंगी सेनाके साथ प्रभुको बंदणा करने के लिये गये, उसकी शाख, भगवती सूत्रके तेरहवें शतकके छठवें उद्देशेमें उदायनके पाठमें “जहा कोणिओ उववाए जहा पज्जुवासं" ऐसा कह करके गणवरोंने दी है। उस पुरावेको देख करके अनेक राजे-महाराजे सेठ-साहुकार, आचार्य उपाध्यायादिकोंको वंदणा करनेके निमित्त गये हैं। ऐसा बहुत सूत्रोंमें देखने में आता है । अब तुमारे आशयसे तो गणधर महाराज पापका उपदेश देने वाले हुए। इसके सिवाय आचारांगसूत्रमें कहा हैः-साध्वी नदीमें गिर गई हो, तो साधु खुद नदीमें गिर करके उसको निकाले, तो इसमें बहुत लाभ कहा है।