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तेरापंथ-मत समीक्षा |
छद्मस्थ मुनिको योग तेरह होते हैं, कार्मण तथा औदारिकमिश्र ये दो योग नहीं होते हैं। इसका विवेचन इस तरह है:--
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छट्ठे गुणठाणे वाले मुनिको आहारक तथा वैक्रियलब्धिएं यदि हुई हों तो प्रमत्तगुणठाणे में ४ मनके, ४ वचनके, १ औदारिक, १ वैक्रिय, १ वैक्रियमिश्र, १ आहारक तथा आहा रकमिश्र ये तेरह होते हैं । और अप्रमत्तमें आहारकमिश्र तथा वैक्रियमिश्र दोनों के न होनेसे ग्यारही होते हैं । अपूर्वादिक पांचोंगुणठाणों में ४ मनके, ४ वचनके तथा १ औदारिक काययोग । यहाँपर अति विशुद्ध चारित्र होनेसे लब्धि हेतुक चार योग नहीं होते हैं । अत एव ९ योग होते हैं । अब यदि छट्ठे गुणस्थानकवाले मुनिको आहारकलब्धि न हो तो ११ योग । वैक्रिय भी न हो तो ९ योग । वैक्रिय न होवे और आहारक होवे तो भी ११ योग होते हैं । सातवेंमें मिश्र कम करना । उपयोग सात होते हैं:-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, ये चार तो नियमेन होते हैं । यदि अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो तो छे होते हैं । और यदि अवधिज्ञान न हुआ हो और मनः पर्यव ज्ञान हुआ हो तो पांच होते हैं तथा दोनों हुए हों तो सात उपयोग होते है । छदमस्थ मुनिको छट्ठे गुणस्थानकसे दशवें गुणस्थानक तक आठों आत्मा होते हैं, ग्यार वे तथा बारहवे गुणस्थानकवाले को कषाय आत्मा नहीं होने से सात आत्मा माने जाते हैं । अब रही लेश्या । छट्ठे गुणस्थानक वाले छमस्थ मुनिको तेजो, पद्म तथा शुक्ल ये तीन भाबलेश्या होती हैं । द्रव्यसे छ लेश्या होती हैं। यद्यपि चतुर्थ कर्मग्रन्थकी ५३ वीं गाथा में छे गुणस्थानकोंमें छ लेश्या लिखी हैं । उट्ठे . गुणस्थानकवालोंके, दीक्षा लेनेके बाद छे लेश्याओं में से
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