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अनुग्रहका-उपदेशका ही फल है। क्योंकि मेरेमें यह शक्ति ही नहीं है कि मैं किसी प्रकार पाठकों को सन्तोष दे सकूं। और इस पुस्तक में जो जो त्रुटियाँ देखी जाँय, वे मेरी ही अज्ञानता के कारण समझनी चाहिये |
मैं यहाँपर इतिहास तत्वमहोदधि पूज्यपाद उपाध्यायजी महाराज श्रीइन्द्रविजयजी, न्यायतीर्थ न्यायविशारद प्रवर्तकजी महाराज श्री मंगल विजयजी, तथा न्यायतीर्थ - न्यायविशारद मुनिवर्य न्यायविजयजी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ कि, जिन्होंने मुझे इस पुस्तकके लिखने में समस्त प्रकारकी सहायता दी है ।
अन्तमें, इस पुस्तक से प्यारे पाठक अवश्य लाभ उठावें, और दया - दानके परम तत्त्व को समझे । बस इसमें ही मैं अपने प्रयत्नकी सफलता चाहता हुआ, इस वक्तव्यको समाप्त करता हूँ ।
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विद्याविजय.
उदयपुर- मेवाड.
कार्तिकी पुर्णिमा वीर सं० २४४२