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________________ ५६ अर्थात्-साधु-साध्वीको प्रामानुग्राम विचरते हुए, मार्गमें कोई मुसाफिर मिल जाय, और वह पूछे कि, 'हे आयुष्मन् श्रमण ! आपने इस रस्तेपर कोई मनुष्य, बैल, भैंसा, अथवा कोई पशुपक्षी एवं सर्प या जलचर प्राणी देखे हैं तो, कहियें। तब साधु अथवा साध्वीने इस विषयमें कुछ भी कहना अथवा दिखलाना नहीं । अर्थात् मौन रहना । और यदि कुछ न कुछ जवाब देनेकी जरूरत पड ही जाय, तो जानते हुए भी कह दे कि-'नहीं जानते'। अब यहाँपर सोचनेकी बात है कि, जानते हुए भी साधु, 'नहीं जानते हैं। ऐसा क्यों कह दे ?। ऐसे प्रत्यक्ष झूठ बोलनेके लिये भगवान्ने क्यों आज्ञा दी ? । लेकिन नहीं; यहाँपर झूठ बोलनेका साधुका इरादा ही नहीं है, यहाँ इरादा है जीव बचानेका । साधु सोचता है कि अगर मैं यह कह दूंगा कि-'हां, अमुक प्राणी, इधरको गया, तो वह जरूर उसके पीछे पडेगा और हाथमें अ:वेगा तो मारेगा भी"। बस, इसी अभिप्रायसे साफ २ कह दे कि-'हमने नहीं देखा। __ यहापर कई लोग 'जाणं वा णो जाणंति वएजा' इस पाठका यह अर्थ करते हैं कि-'जानता हुआ भी साधु, 'जानता हूँ' ऐसा न कहे ' अर्थात् मौन रहे । लेकिन यह अर्थ ठीक नहीं है । क्योंकि 'तुसिणी) उवेहेजा ' यही पाठ मौन रहने के लिये है, तो फिर दूसरी वार मौन रहनेके लिये क्यों कहे ?। तब यह कहना पडेगा कि-यह पाठ खास अपवादके लिये है । अर्थात् प्रथमतो साधु मौन ही रहे । और यदि किसी कारणसे कुछ न कुछ बोलनेकी जरूरत पड ही जाय, तो जानता हुआ भी नहीं जानता,', ऐसा कह दे। और यही अर्थ सचा है। दूसरी बात यह है कि
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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