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________________ रहेंगे।" कहनेका तात्पर्य यह है कि ऐसे भोले लोग उन लोगोंकी जालमें फँस जॉय, तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । भस्तु । जिस पुस्तकके विषयमें यह 'किञ्चिद्वक्तव्य ' लिखा जाता है, यह भी एक ऐसे ही पंथ के विषयमें है । करीब दो वर्षोंके पहिले इस तेरापंथ मतके विषय में मुझे विशेष अनुभव नहीं था, बल्कि इस पंथके मन्तव्योंके विशेष रूपसे जाननेकी इच्छा भी नहीं हुआ करती थी । परन्तु सौभाग्यवश, सं० १९७० के वैशाख महीने में जब, परमपूज्य प्रातःस्मरणीय गुरुवर्ष शास्त्रविशारद-जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज तथा इतिहासतस्त्रमहोदधि उपाध्यावजी महाराज श्रीइन्द्रविजयजीकी पाली (मारवाड) में तेरापंथियों के साथ चर्चा हुई, और सेरापंथियोंने तेईस प्रश्न लिख करके दिये, तभीसे मुझे इस पंथके मन्तव्योंके जानने और इसके विषयमें कुछ न कुछ लिखते रहनेका सौभाग्य प्राप्त होता ही रहता हैं। उन तेईस प्रश्नोंके उत्तरोंके साथमें, तेरापंथ-मतकी उत्पत्ति, उसके स्थूल स्थूल मन्तव्य ( सिद्धान्त ) तथा तेरापंथियोंसे पूछे हुएँ ७५ प्रेम वगैरह संग्रहरूप 'तेरापंथ-मत समीक्षा' नामक पुस्तक, मैंने गत वर्षमें (सं० १९७० के चातुर्मासमें ) शिवगंजमें लिखी थी। मुझे इस बातको प्रकट करते हुए संतोष होता है, कि-मेरी उस पुस्तककी दूसरी आवृत्तिके निकालनेका प्रकाशकको बहुत शीघ्र समय प्राप्त हुआ। साथ मुझे इस बातका अफसोस भी है कि उस पुस्तकमें मेरे पूछे हुए ७५ प्रश्नोंके उत्तर, आजतक किसी भी तेरापंथीने प्रकाशित नहीं किये। .. यद्यपि मैंने, 'तेरापंथ-मत समीक्षा' में तेरापंधियोंके मन्तव्योंके माम मात्र प्रकाशित किये थे, परन्तु उनका विस्तारसे जवाब नहीं
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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