SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कितने प्रमाण दें। ऐसे अनेकों प्रमाण दे सकते हैं, जिससे कि मुहपत्तीका बांधना न सिद्ध हो । जैनसूत्रोंको पढ जाईये, और बडेबडे धुरंधर आगोंके बनाए हुए ग्रन्थों को देख जाईये । एकभी स्थान ऐसा नहीं मिलेगा कि-मुहपत्ती बांधना सिद्ध हो । जैन शास्त्रोमें ही क्यों, हिन्दु धर्मशास्त्रोंमें भी जहाँ जहाँ जैनसाधु. ओंका वर्णन आया है, वहाँ भी किसी जगह यह नहीं लिखा किजैनके साधु मूंहबंधे होते हैं। देखिये, शिवपुराणके २१ वें अध्यायमें लिखा है: " मुंडं मलिनवस्त्रं च कुंडीपात्रसमन्वितम् । दधानं पुञ्जिका हस्ते चालयन्तं पदेपदे ॥१॥ " वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमाणं मुखे सदा । धोते व्याहरन्तं तं नमस्कृत्य स्थितं हरेः" ॥२॥ अर्थः-मुंडे हुए मस्तकवाले, मलिनवस्त्रवाले, काष्ठके पात्र करके युक्त, हाथमें रजोहरणको धारण करनेवाले, पदपदको देखकर चलते हुए, तथा वस्त्रयुक्त हाथवाले, वार २ वह वस्त्रमुखपर रख कर 'धर्मलाम' इस प्रकारसे बोलते हुए, ऐसे हरिके पास रहे हुए साधुको नमस्कार करके । ___ उपर्युक्त वृत्तान्तसे जैनसाधुका वेष स्पष्ट जाहिर होता है । यदि Jह बंधा हुआ होता, तो 'वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं ' कहते ही क्यों ? यों ही कहते कि-मूहबंधा, जैसा कि आजकल ढूंढक-तेरापंथी साधुओंको देखकर लोग कहते हैं । ... इत्यादि अनेकों प्रमाणोंके मिलने पर भी दुराग्रही लोग अपने दुराग्रहको न छोडें, तो इसमें दूसरोंका उपाय नहीं है। वास्तवमें देखा जाय तो मुहपत्ती बांधना किसी प्रकारसे सिद्ध नहीं हो सकता। बल्कि जैनदृष्टिसे कुलिंगपना ही है। और यह कुलिंगपना
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy