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कि परिग्रह किसको कहते हैं ? । परिग्रह, खान-पान वल-पात्र इत्यादिको नहीं कहते हैं, किन्तु उनमें की हुई मूर्छाको कहते हैं । यदि मूर्छाको परिप्रह नहीं मान करके, वस्त्र--पात्र और खानेपीने वगैरहको ही परिग्रह माना जाय, तो संसारमें किसीको केवलज्ञान होना ही नहीं चाहिये । क्योंकि-सभी मनुष्य, चाई साधु हों, या गृहस्थ, खाते हैं, पीते हैं और वन भी रखते हैं। भौर जिनको केवलज्ञान हो भी गया है, वे भी तो खाते-पीते और वस्त्र रखते थे। फिर उनको केवलज्ञान कैसे हुआ ? । लेकिन नहीं, वस्त्रपात्रको परिग्रह नहीं कहते हैं, किन्तु मूर्छाको परिग्रह कहते हैं । और यही बात, भगवान्के वचनानुकूल है। क्योंकि-भगवान्ने अठारह पापस्थानोंको, जिनमें परिग्रह भी है, पारस्पर्शी कहे है । और वस्त्र-पात्र वगैरह तो आठ पर्शी हैं, फिर इनको ( वस्त्र-पात्रादिको) परिग्रह नहीं कहना चाहिये, किन्तु मूर्छाको ही प्ररिग्रह कहना चाहिये। .. ..
अब छठी ढालको देखिये । छठी ढालके प्रारंभमें लिखा है:" जे अणकंपा साधु करे, तो नवां न बांधे कर्म। . तिणमाहिली श्रावक करे, तो तिणने पिण होसी धर्म"RA
" साधश्रावकदोनांतणी, एक अणकंपा जाण । ___ अमृत सहुने सारखो, तिणरी मकरो ताण" ॥ ३ ॥
इससे यह दिखलाया कि-जो अनुकंपा साधुको करनेकी है, बह अनुकंपा श्रावकको भी करनी चाहिये । जब ऐसा ही नियम है तो फिर, भीखमजीने, किस भंगके नशेमें, चोथी ढाल में ऐसा लिख मारा कि-" साधुके पाँऊ नीचे जीव आता हो, तो दूसरा साथ चलनेवाला साधु उसको दिखावे । लेकिन, गृहस्थके पैर बीचे जीव आता हो, तो उसको दूसस मारक न दिसावे,
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