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________________ ܘܕ भगवान्ने गोशालेको बचाया, इसका सारा वृत्तान्त सूत्रके पाठोंके साथ पहिले लिख आए हैं । इस लिये पुनः लिखनेकी आवश्यकता नहीं है | हरिकेशी मुनि, जिस समय यज्ञपाटक में आए हैं, उस समय ब्राह्मणोंने आपका बहुत तिरस्कार किया है । तिसपर भी हरिकेशी मुनि मौन ही रहे हैं। इनको देखकर तंदुकनामक वृक्षमें रहनेवाले एक यक्षको मुनिजीपर भक्ति उत्पन्न हुई है, और इस भक्तिके कारणसे ही, यक्षने मुनिजीके शरीर में प्रवेश किया है । जैसे उत्तराध्ययन सूत्रके बारहवें अध्ययनमें कहा है: : "जक्खो तर्हि विंदुरुक्खवासी अणुकंपओ तस्स महामुणिस्स । पच्छायइत्ता नियगंसरीरं इमाई वयणाई उदाहरित्था ॥ ८ ॥ पृ. ३५३ | अर्थात् — तंदुकनामक वृक्षमें रहनेवाले मुनिके भक्त यक्षने, अपने शरीरको अदृश्य करके ( मुनिजीके शरीर में प्रवेश करके ) इस प्रकार बोलने लगा । अब यहाँपर जो अनुकंपा दिखलाई है, यह भक्ति अर्थ में हैं । क्योंकि- बडोंके प्रति छोटोंका जो कर्तव्य होता है, वह भक्ति अर्थमें ही लिया जाता है । जैसे पुत्र अपने माता - पिताकी रक्षा करता है, यह अनुकंपा भक्ति अर्थ में ही है शास्त्रोंमें भी अनेकों स्थानोंमें मिलते हैं। देखिये । और ऐसे परमात्मा महावीरदेव, जिससमय माताकी कुक्षिमें आए हैं, उस समय माताकी अनुकंपासे, अर्थात् माताको कष्ट न हो, इस अभिप्रायसे अपने अंगोपांगोंको गोपन कर दिये हैं । देखिये, कल्पसूत्र में खास लिखा हैः-
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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