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ओसवालों की उत्पत्ति वाल अयुक्ति युक्त नहीं है। वर्तमान ओसवालों की उत्पत्ति की; शोध खोज करने पर भी विक्रम की दशमी शताब्दी से प्राचीन प्रमाण नहीं मिले यह बात स्वाभाविक ही है क्योंकि जिसका जन्म ही नहीं उसका नाम ढूंढना जैसे “पाणी को मथ कर घृत निकालना" है। फिर भी श्रोसवालों की उत्पत्ति उपकेशपुर में आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा हुई इसमें तो पुराणे और नये विचार प्रायः सहमत ही हैं पर इस घटना के समय के विषय में मतभेद अवश्य है यद्यपि नये विचारवाले आज पर्यन्त किसी निश्चयाऽऽत्मक सिद्धान्त पर तो नहीं आए; तथापि कई प्रकार की शङ्काएं अवश्य किया करते हैं। किसी पदार्थ के निर्णय करने में तर्क व शङ्का करना कोई बुरी बात नहीं है उल्टी लाभकारी ही है, पर इसके पहिले सत्य को स्वीकार करने की योग्यता प्राप्त करना कुछ विशेष लाभप्रद है।
किसी भी वस्तु को पूर्णतया जाँच एवं उसका निर्णय करने में सबसे पहिला कार्य, समय, शक्ति, अभ्यास और साधन सामग्री का जुटाना है, पर खेद है कि इस विषय में शायद ही किसी संशोधक ने आज तक यावच्छक्य परिश्रम किया हो, इस महत्वपूर्ण कार्य सम्पादन में सर्वप्रथम कर्तव्य तो ओसवालों ही का है । उन्हें चाहिये कि अपनी जाति की उत्पत्ति के विषय में भरसक प्रयत्न करें। यह लिखते तो हमें फिर भी दुःख होता है कि अखिल भारतीय ओसवाल महासम्मेलन के दो दो अधिवेशन होगए पर उनमें इस विषय की चर्चा तक नहीं चली, जिस समाज के उद्धार के लिए तो हम लाखों का बलिदान करने के साथ समय एवं शक्ति का भी व्यय करें पर उसकी उत्पत्ति के बारे में एकदम चुप्पी साध लें यह निरी मूर्खता ही है-कहा है “मूलं नास्ति कुतः शाखा" अर्थात् जिस समाज के मूल का पता नहीं उसके अन्य अंगों का उद्धार कैसे हो सकेगा। और जब महासम्मेलन के विद्वानों का भी यह हाल है तो अन्य साधारण व्यक्ति का तो कहना ही क्या ? श्राज ओसवाल वंशीय केवल पैसा उपार्जन करना ही अपना गौरव समझते हैं, सभ्य समाज इन्हें प्राचीन कहे या अर्वाचीन इसकी इन्हें क्या परवाह है । पर (आजकल) समय की रुख देखते यह आवश्यक हो गया है कि हम सर्व प्रथम अपने इतिहास को उपलब्ध करें।