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________________ प्राचीन प्रमाण ४५ विद्याधरशाखा जिन में तपागच्छ और खरतरगच्छ आदि चन्द्र कुल में है । तथाच : तदन्वये यक्षदेवसूरि, दशपूर्वधरोवज्रस्वामी, दुर्भिक्षे द्वादशाब्दीये, वर्तमानेऽनाशकेन, ततो व्यतीते दुर्भिक्षे चावशिष्टेषु साधुषु ॥ मिलितेषु यक्षदेवाचार्या, चन्द्रगणेऽमिलन ॥ २३३ ॥ रासीद्धियां निधिः ॥ भुव्यभवद् यथा ॥ २३१ ॥ जनसंहारकारिणी ॥ स्वर्गेऽगुर्बहुसाधवः ॥ २३२ ॥ अर्थः- उस उपकेशगच्छ में श्री यज्ञदेवसूरि दर्श पूर्व-घर वास्वामी के सदृश बुद्धि के सागर इस भूतल पर हुए । एक समय द्वादश वार्षिक अकाल पड़ने पर बहुतजन संहार हुआ और अनेक साधु भोजनाभाव से स्वर्गलोक को चले गये । अनन्तर उस दुर्भिक्ष के मिटने पर और मरने से बचे साधुओं के एक स्थान में इकठ्ठा होने पर श्री यज्ञदेवाचार्यसूरि ने चन्द्रगादि की स्थापना की । १० – आचार्य श्री विजयानन्द सूरि ने अपने जैन धर्म विषयक प्रश्नोत्तर नामक ग्रंथ में लिखा है कि श्रीदेवऋद्धि गणी क्षमाश्रमणजी ने उपकेशगच्छाचार्य देवगुप्तसूरि के पास एक पूर्व सार्थ और आधा पूर्व मूल एवं डेढ़ पूर्व का अभ्यास किया था । इसका समय विक्रम की छीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का है। यही बात उपकेश गच्छ पट्टावली में. लिखी है। इससे यह सिद्ध होता है कि छठी सदी में उपकेशगच्छाचार्य मौजूद थे तो उपकेश जाति तो इनके पहिले अच्छी उन्नति और आबादी पर होनी चाहिए । ११ - इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसादजी जोधपुर वाले ने राजपूताना की शोध (खोज) करते हुए जो कुछ प्राचीन सामग्री उपलब्ध की उसके आधार पर एक " राजपूताना की शोध खोज” नामक पुस्तक लिखी, जिसमें लिखा है कि "कोटा राज के अटारू नामक ग्रांम में एक जैन मन्दिर जो खण्डहर रूप में विद्यमान है, के नीचे वि० सं० ५०८ भैशाशाह के नाम का जिसमें एक मूर्ति शिलालेख है उन
SR No.007293
Book TitleOswal Ki Utpatti Vishayak Shankao Ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1936
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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