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जैन धर्म का प्रचार
प्रभावशाली तथा उत्कट ओजस्वी प्रचारक भी था। इनकी संतान राजकोठारी के नाम से आज लों जैन जाति में प्रख्यात है। शत्रुजय तीर्थका अमन्ति उद्धारक कर्माशाह इसीखानदान में हुआ था। इस प्रान्त में भी मारवाड़ से गये हुए कई व्यौपारी मौजूद हैं । इस प्रान्त में जैनधर्म की प्राचीनता के यों तो बहुत साधन मिल चुका है पर हाल ही में गवर्नमेण्ट सरकार ने मथुरा का कंकाली टीला का खोद काम करवाया जिसमें सैकड़ों जैनमूर्तियों या मंदिरों के खण्डहर मिले हैं और उनमें कई तो विक्रम पूर्व दो सौ वर्ष के बतलाये जाते हैं इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि विक्रम या विक्रम पूर्व इस प्रान्त में जैनधर्म बड़ा ही उन्नत था।
(१५) काशी कोशल प्रान्त । इस प्रान्त में जैनधर्म प्राचीन समय से ही प्रचलित था कारण इस प्रान्त में भगवान् पार्श्वनाथ प्रभु का जन्म काशी नगरी के महाराजा अश्वसेन की वामा नाम की पटरानी की पवित्र रत्नकुक्ष से हुआ था । भगवान् पार्श्वनाथ ने दीक्षा धारण कर इस प्रान्त में जैन धर्म का खूब प्रचार किया था। काशी कोशल के अठारा गण राजा भी सबके सब जैन ही थे । अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का अन्तिम चतुर्मास पावापुरी में था। उस समय भी अठारा राजा भी भगवान् के अन्तिम समय सेवा में थे। बनारसी, सिंहपुरी अयोध्या आदि जिन कल्यानक भूमि जो तीर्थरूप कहलाती हैं वे सब इसी प्रान्त के अन्तर्गत हैं एक समय इस प्रान्त में जैन धर्म उन्नति के उच्च शिखर पर था।
(१६) मेवाड़ (मेदपाट) प्रान्त । इस प्रान्त में भी जैन धर्म प्राचीन समय से प्रचलित था तथा चित्रकूट के पंवार वंशी नप भी जैनी ही थे। इस प्रान्त में श्री केसरियानाथजी