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________________ ३४ प्रा जै० इ० तीसरा भाग चरण किया गया। इसके पश्चात् सभापतिने अपनी ओर से महत्व पूर्ण भाषण देना प्रारम्भ किया । प्रथम तो आपने महावीर भगवान के शासन की महत्ता सिद्ध की । आपने अपनी वाक्पटुता से सारे श्रोताओं का मन अपनी ओर आकर्षित कर लिया । आपने उस समय दुष्काल का विकराल हाल तथा जैन धर्मावलम्बियों की घटती, आगमोंकी बरबादी, धर्म प्रचारक मुनिगणों की कमी, प्रचार कार्य को हाथ में लेनेकी आवश्यक्ता आदि सामयिक विषयों पर जोरदार भाषण दिया । श्रोता टकटकी लगाकर सभापति की ओर निहारते थे। व्याख्यान का आशातीत असर हुआ। .... .:. भाषण होने के पश्चात् खारवेल नरेश ने आचार्यश्री को नमस्कार किया तथा निवेदन किया कि आप जैसे आचार्य ही जिन शासन के आधार स्तम्भ हैं आपकी आज्ञानुसार कार्य करने के लिये हम सब तैयार हैं । आपके कहने का अर्थ सब का समझ में आगया है । इस कलियुग में जिन शासन के दो ही आधार स्तम्भ हैं, जिनागम और जिन मन्दिर । जिनागम का उद्धार-मुनि लोगों से तथा जिन मन्दिरों का उद्धार श्रावक वर्ग से होता है। किन्तु दोनों का पारस्परिक घनिष्ट : सम्बन्ध है, एक की सहायता दूसरे को करनी चाहिये । मुनिराजों; को चाहिये कि जिन शासन की तरक्की करने के हेतु तैयार हो. जावें । देश विदेश में घूम घूम कर महावीर स्वामी के अहिंसा के उपदेश को फैलाने के लिये मुनिराजों को कमर कस कर तैयार हो
SR No.007289
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 03 Kaling Desh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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