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प्रा० जै० इ० तीसरा भाग
है जिसके पठार पर एक विराट् साधु सम्मेलन हुआ था। सैकड़ों मीलों से जैन साधु तथा ऋषि इस पवित्र पर्वत पर एकत्रित हुए थे। .... .. ...
जैन लेखकों ने महाराजा खारवेल का इतिहास कलिंगपति महाराजा सुलोचन से प्रारम्भ किया है । परन्तु इतिहासकारों ने प्रारम्भ में कलिंग के एक सुरथ नाम राजा का उल्लेख किया है। कदाचित् सुलोचन का ही दूसरा नाम सुरथ हो । कारण इन दोनों के समय में अन्तर नहीं है।
भगवान महावीर स्वामी के समय में कलिंग देश की राजधानी कंचनपुर में थी और महाराजा सुलोचन राज्य करता था। सुलोचन नरेश की कन्या का विवाह वैशाला के महाराजा चेटक के पुत्र शोभनराय से हुआ था। जिस समय महाराजा चेटक और कौणिक में परस्पर युद्ध छिड़ा तो कौणिक-नृपति ने वैशाला नगरी का विध्वंश कर दिया और चेटक राजा समाधी मरण से स्वर्गधाम को सिधाया ! अतः शोभनराय अपने श्वसुर महाराजा सुलोचन के यहाँ चला गया । सुलोचन राजा अऊत था अतएव उसने अपना सारा साम्राज्य शोभनराय के हस्तगत कर दिया। सुलोचन नृप ने इस वृद्ध अवस्था में निवृति मार्ग का अवलम्बन कर कुमारगिरि तीर्थ पर समाधी मरण प्राप्त किया। वीरात १८वें वर्ष में शोभनराय कलिंग की गद्दी पर उपरोक्त कारण से बैठा । यह चेत (चैत्र ) वंशीय कुलीन राजा था । यह जैन धर्मावलम्बी था। इसने कुमारी पर्वत पर अनेक मन्दिर बनवाए । इसने अपने