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पाटलीपुर का इतिहास
और स्वार्थियों की बन पड़ी। भोले लोग खूब भटकाए गये । किन्तु अन्त में मिथ्यात्वियों की पूर्ण पराजय हुई और सोलहवें तीर्थकर श्री शान्तिनाथ स्वामी के शासनकाल में पूर्ण शान्ति स्थापित हो गई। किसी भी प्रकार का दूषित वातावरण नहीं रहा । यह शांति चिरकाल तक रही। दिन व दिन धर्म की उन्नति होती रही और दशा यहाँ तक अच्छी हुई कि बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत स्वामी के शासनकाल में अहिंसा धर्म की पताका सारे विश्व में फहराने लगी। इस झंडे के नीचे रह कर मानव समाज प्रचुर सुख अनुभव कर उसे पूर्ण तरह से भोगने लगे।
मुनिसुव्रत स्वामी ने भडूच में अश्वमेध यज्ञ बंद करा कर एक अश्व की रक्षा की थी अतः वह तीर्थ अश्वबोध नाम से कहलाने लगा तथा वह आज तक इसी नाम से विख्यात है । किन्तु यह उत्थान भी पराकाष्टा तक पहुँच कर फिर अवनत होने लगा। बीसवें और इक्कीसवें तीर्थकर के शासन के अन्तःकाल में पुनः ब्राह्मणों का जोर बढ़ा। महाकाल की सहायता से पर्वत जैसे पापात्माओं ने पशु बलि जैसे निष्ठुर यज्ञयाज्ञादि का प्रचुर प्रचार कर जनता को आमिषभोजी बनाया। मदिरा का भी प्रचार मांसभक्षण के साथ बढ़ा। मूकपशु, यज्ञ की वेदियो पर मारे जाने लगे। पशुओं की हत्याओं से भूमि रक्त रंजित हो गई । शोणित का प्रवाह धरणी पर प्रवाहित होने लगा। रक्त की नदियाँ सब प्रान्तों में बहने लगी। नदियों के नाम भी रक्तानदी तथा चर्मानदी पड़ गये। इस समय जैन सम्राट रावण ने इस हत्या को रोकने के लिये कई यज्ञों को रोका तथा यज्ञ कर्ताओं को खूब दण्ड भी दिया। यही कारण था कि ब्राह्मणों ने रावण