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प्राचीन जैन इतिहास संग्रह
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उपकार करता है । जिस धर्म के प्रभाव से आपने यह सम्पदा उपार्जित की है उसी धर्म की सेवा में यह व्यय करो । ऐसा कर ने से आपका भविष्य और भी अधिक उज्जवल होगा । हम तो निस्पृही जैन मुमुक्षु हैं। हमें इस राज्यऋद्धि से क्या सरोकार । यदि आप चाहें तो इसी राज्य की ऋद्धि के सद्व्यय से जैनधर्म कासारे विश्व में प्रचार कर सकते हैं । जैनधर्म के प्रसार से अनेक जीवों का कल्याण होना बहुत सम्भव है ।
सूरीजी के उपदेशको मानकर हृदय में "यतो धर्मस्ततो जय" के सिद्धान्त के सार को ठान राजाने उसी समय रथयात्रा में सम्मिलित हो, यह उद्घोषणा करदी कि मेरे राज्य में आज से कोई व्यक्ति पशु एवं पक्षी का शिकार नहीं करे। माँस और मदिरा के भक्षक व पियक्कड़ मेरे राज्य में नहीं रहने पावेंगे । सम्प्रति नरेशने उसी दिन से लोक हितकारी परम पुनीत जैनधर्म का अवलम्बन ले रात दिन इसी के प्रचार का प्रबल प्रयत्न करने संलग्न होने का निश्चय किया । जैन धर्मावलम्बी श्रावकों को हर प्रकार से सहायता देने की व्यवस्था की गई। जैन शास्त्रकारों ने तो यहाँ तक लिखा है कि सम्प्रति नृपने जैनधर्म का इतना प्रचार किया कि उसने सवाक्रोड पाषाण की प्रतिमाएं, ९५००० सर्वधात की प्रतिमाएं तथा सवा लाख नये मन्दिर बनवाये आपने इसके अतिरिक्त ६०००० पुराने मन्दिरों का जिर्णोद्धार कराया १७००० धर्मशालाएं, एक लाख दानशालाएं, अनेक कुए, तालाब, बाग और बगीचे, औषधालय और पथिकाश्रम बनाकर प्रचुर द्रव्य का अनुकरणीय सदुपयोग किया । राजा सम्प्रतिने जो सिद्धाचलजी का विशाल संघ निकाला था उसमें सोना चांदी के