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. पाटलीपुर का इतिहास
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कि चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और पौत्र बिन्दुसार और अशोक भी जैन धर्मावलम्बी ही थे। इस बात को पुष्ट करने के लिये साहब ने जगह जगह मुद्राराक्षस, राजतरंगिणी और आइनई अकबरी के प्रमाण दिये हैं।
श्रीयुत जायस वाल महोदय Journal of the Behar and Orissa Research Society Volume III में लिखते हैं"प्राचीन जैन ग्रंथ और शिलालेख चन्द्रगुप्त मौर्य को जैन राजर्षि प्रमाणित करते हैं । मेरे अध्ययन ने मुझे जैन ग्रन्थों की ऐतिहासिक वार्ताओं का आदर करना अनिवार्य कर दिया है। कोई कारण नहीं कि हम जैनियों के इन कथनों को कि चन्द्रगुप्त ने अपनी प्रौढ़ा अवस्था में राज्य को त्याग कर जैन दीक्षा ले मुनिवृति में ही मृत्यु को प्राप्त हुए, न मानें, इस बात को मानने वाला मैं ही पहला व्यक्ति नहीं हूँ।" मि. राईस भी जिन्होंने श्रवण वेलगोल के शिलालेखों का अध्ययन किया है पूर्ण रूप से अपनी राय इसी पक्ष में देते हैं।
डाक्टर स्मिथ अपनी Oxford History of India नामक पुस्तक के ७५, ७६ पृष्ट में लिखते हैं “चन्द्रगुप्त मौर्य का घटना पूर्ण राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ इस बात का उचित विवेचन एक मात्र जैन कथाओं से ही जाना जाता है । जैनिय ,ने सदैव उक्त मोर्य सम्राट् को बिम्बसार (श्रेणिक) के सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है और उनके इस कथन को असत्य समझ ने के लिए कोई उपयुक्त कारण नहीं है। यह बात भी सर्वथा सत्य है कि शैशुनाग, नंद ओर मौर्यवंश के राजाओं के समय मगध देश में जैन धर्म का प्रचार प्रचुरता से था। चद्रगुप्त ने