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क्योंकि उनमें संक्षेप रूप से जैनधर्म एवं इतिहास पर शिक्षित जनता के लिए समुचित प्रकाश डाला गया था। अब " बंगाल का आदि धर्म" नामक तृतीय पुष्प समाज के सामने उपस्थित किया जा रहा है ।
इस निबंध के लेखक श्री प्रबोधचन्द्र सेन एम० ए० ने ऐतिहासिक, दार्शनिक एवं धार्मिक प्रमाणों द्वारा बंगाल के धार्मिक इतिहास पर ज्ञान वर्धक, रोचक, तथ्यपूर्ण तथा हृदयङ्गम प्रकाश डाला है | निबंध आद्योपान्त पठनीय है। पाठक इस निष्कर्ष पर पहुँचे विना नहीं रह सकेंगे कि लेखक ने 'नामूलं लिख्यते किञ्चित' के स्वर्णिम सिद्धान्त का पूर्णरूपेण पालन किया है। उन्होंने अपने पक्ष की सिद्धि के लिए अकाट्य युक्तियां एवं अधिकारपूर्ण उद्धरण दिए हैं। श्री कल्पसूत्र का कौन वाचक अथवा श्रोता नहीं जानता कि भगवान् महावीर अनेक उपसर्गों को साहस-पूर्वक सहन करते हुए राढ़ भूमि अथवा पश्चिम बंगाल गए थे । ह्य्सांग ने यद्यपि जैनधर्म के विषय में स्पष्ट उल्लेख नहीं किया परन्तु उनके उल्लेखों से निश्चयात्मक अनुमान विद्वानों के लिए अशक्य नहीं । प्रज्ञाचक्षु विद्वान पंडित सुखलालजी इस बात को स्पष्ट सिद्ध कर चुके हैं कि 'निर्ग्रन्थ' शब्द जैन श्रमणों का ही द्योतक है। ह्यं सांग ने इनका अस्तित्व वैशाली, उत्तरबंगाल, कलिंग व दक्षिण बंगाल में बताया है ।
लेखक का अध्ययन विशाल, अनुसंधानात्मक एवं सूक्ष्म है । उन्हीं ने बंगाल में वैदिक ब्राह्मण, बौद्ध, शैव, वैष्णव व जैनधर्म के विकास ह्रास का प्रागैतिहासिक काल से प्रामाणिक वर्णन किया है । लेखक का यह निष्कर्ष सम्यक है कि कलिंगाधिपति खारवेल के समय बंगाल में भी जैनधर्म का प्रचार रहा होगा। प्राचीन पालीसाहित्य का अध्ययन कर लेखक ने यह भी सिद्ध किया है कि उसमें वंगदेश का वर्णन नहीं है और यदि है भी तो भ्रममूलक, परन्तु जैन साहित्य में अंग,