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सौ वर्षों तक जैनधर्म बंगालदेश में सफला पूर्वक अपने अस्तित्व
और प्राधान्य की रक्षा करने में समर्थ रहा । किन्तु ह्य मांग के बाद बंगालदेश में बौद्धधर्मावलम्बी पाल राजा के शासनकाल में एवं शांत रक्षिक, दीपंकर प्रभृति शक्तिशाली और सुविख्यात बौद्ध प्रचारकों के प्रभावकाल में बंगालदेश में बौद्धधर्म ने ही प्रधान स्थान प्राप्त किया था। एवं जैनधर्म क्रमशः क्षीण बल होते होते अंत में (इस देश से) एकदम विलुन हो गया। बंगाल से जैनधर्म के विलोप में नष्ट होते हुए उपकारी और उपयोगी पशुश्री तथा मनुष्यों के प्राणदाता महावीर ही थे। अनेक प्रकार के नवीन धम संप्रदायों के मतभेदों से उत्पन्न होने वाले विग्रहों का स्याद्वाद शैली से समाधान कर सब को एकसूत्र में संघठित करने वाले सूत्रधार महावीर हो थे । इस मायावी मृगजल की तृष्णा में तड़पते हुए प्राणियों को आत्मज्ञान का अमृतपान कराने वाले महातत्त्वज्ञ महावीर ही थे । सृष्टि के निर्माता की कल्पना में पुरुषार्थहीन बन कर बैठने वाली प्रजा को अपने पुरुषार्थ भरे कर्तव्य का भान करानेवाले मार्गदर्शक महावीर ही थे। ..
. .. (अनुवादक) ...
*बंगालदेश में आज भी सर्वत्र लाखों की संख्या में एक ऐसी जाति पायी जाती है जो “सराक" के नाम से प्रसिद्ध है और कृषि, कपड़ा बुनने तथा दुकानदारी श्रादि का व्यवसाय करती है। इस लेख में ह्य, सांग की यात्रा के विवरण में जिन जिन स्थानों का उल्लेख है उन सब स्थानों में प्रायः यह जाति आज भी विद्यमान है । ये लोग उस प्राचीन जैन श्रावकों के वंशज हैं जो जैन जाति का अवशेष रूप हैं । यह जाति अाज प्रायः हिन्दू धर्म की अनुयायी है । कहीं कहीं अभी तक ये लोग अपने आपको जैन समझते हैं। इस जाति के विषय में अनेक पाश्चिमात्य तथा भारतीय विद्वानों ने उल्लेख किया है, जिस का अति संक्षेप रूप से यहां परिचय देना असंगत न होगा।