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________________ (. ७ ) फिर भी जीवन में कितने ही प्रसंग ऐसे उपस्थित होते हैं कि लाख जतन करने पर भी मनुष्य से भूल हो ही जाती है । ऐसी दशा में अपनी भूल को सुधार' कर आगे बढ़ने का आदेश जैन सूत्रों में है-हताश होकर और मन मारकर बैठ जाने का नहीं। जैसे "कोई बालक अच्छा या बुरा काम करने पर सरलतापूर्वक सब कुछ कह-सुन देता है, उसी प्रकार साधु को चाहिये कि वह निष्कपट भाव से अपने गुरु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना करे ।" यहाँ "वैद्य को जिन भगवान के समान, रोगी को साधु के समान, रोगों को अपराधों के समान और औषधि को प्रायश्चित्त के समान बताया गया है।" प्रायश्चित्त का विधान भी कोई ऐसे-वैसे नहीं बताया। "न वह ( प्रायश्चित्त ) सर्वकाल में विधि रूप होता है और न प्रतिषेष रूप । बल्कि जैसे कोई लाभ का इच्छुक वणिक् आय और व्यय का सन्तुलन रखता है, उसी प्रकार प्रायश्चित्त देने वाले आचार्य को भी बहुत सोच-विचार कर प्रायश्चित्त देना चाहिए।" अथवा "जैसे कोई रत्नों का व्यापारी मौका पड़ने पर अपने बहुमूल्य रत्नों को अल्प मूल्य में और अल्प मूल्य के रत्नों को अधिक मूल्य में बेच देता है, इसी तरह आचार्य भी राग और द्वेष के कम या ज्यादा होने पर, तदनुसार प्रायश्चित्त का विधान करता है।" .. . ... .... .. : - दूसरा प्रश्न है संयम पालन के लिए देह धारण का। "मोक्ष के साधन दर्शन, ज्ञान और चारित्र की सिद्धि देह धारण से हो सकती है और देह धारण के लिए आहार की आवश्यकता है।" जैनसूत्रों में उल्लेख है कि "जैसे तेल के उचित अभ्यंग से गाड़ी अच्छी तरह चलने लगती है और घाव ठीक हो जाता है, उसी प्रकार आहार द्वारा संयम का भार वहन किया जा सकता है।" "जैसे कोई फसल काटने वाला दांती के बिना फसल नहीं काट सकता, नदी पार जाने वाला नाव के बिना नदी पार नहीं कर सकता, योद्धा शस्त्र के बिना शत्रु को पराजित नहीं कर सकता, राहगीर पदत्राण के बिना रास्ता तय नहीं कर सकता, रोगी औषधि के बिना नीरोग नहीं हो सकता, और संगीत विद्या का इच्छुक वादित्र के बिना संगीत नहीं सीख सकता, इसी प्रकार समाधि का इच्छुक आहार के . . बिना समाधि नहीं प्राप्त कर सकता ।" अतएव संयम धारण करने के लिए अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक शरीर की रक्षा करना चाहिए, क्योंकि शरीर ही धर्म का स्रोत है। जैन श्रमणों को पुष्टिकारक भोजन का निषेध किया गया है। क्योंकि "इस भोजन में शुक्र की वृद्धि होती है, उससे वायु प्रकोप होता है और वायु प्रकोप से. काम जागृत होता है, अतएव साधु को आहार-विहार में अत्यन्त संमयशील होने
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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