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प्रास्ताविक
जैन आगमों में भगवान महावीर का उपदेश सन्निहित है जिसे उनके गणधरों ने सूत्र रूप में निबद्ध किया। इस हिसाब से जैन आगमों को महावीर जितना ही प्राचीन मानना चाहिए। लेकिन उन दिनों सूत्रों को कण्ठस्थ रखने की पद्धति थी। ऐसी हालत में आगमों को सुव्यवस्थित रखने के लिए समय-समय पर जैन श्रमणों के सम्मेलन होते रहे। अन्तिम सम्मेलन ईसवी सन की पांचवीं शताब्दी में गुजरात-काठियावाड़ में हुआ। इसका मतलब यह कि समस्त उपलब्ध आगमों को महावीर का साक्षात् प्रवचन नहीं कहा जा सकता। काल-दोष से ईसवी सन् के पूर्व पांचवीं शताब्दी से लगाकर ईसवी सन की पांचवीं शताब्दी तक यानी १,००० वर्ष के बीच, उनमें अनेक संशोधन और परिवर्तन होते रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि जैन आगम अपने रूप में .सुरक्षित न रह सके। - ये आगम संक्षिप्त होने के कारण गूढ़ थे, अतएव बिना टीका-टिप्पणियों के इन्हें समझना कठिन था। ऐसी हालत में समय-समय पर जैन आचार्यों ने इन पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएं लिखीं। यह टीका-साहित्य ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी से लेकर ईसवी सन् की १६ वीं शताब्दी तक चलता रहा। आगमों के अनेक पाठ विस्मृत अथवा त्रुटित हो जाने से टीकाकारों को मूल सूत्रों के समुचित प्रतिपादन में काफी कठिनाई हुई । फिर भी जो कुछ उन्हें स्मरण था अथवा आचार्य परम्परा से ज्ञात था उसे लिखकर उन्होंने सन्तोष किया।
जैन आगम-साहित्य में विविध सांस्कृतिक और सामाजिक सामग्री मिलती है जो भारतीय इतिहास के सांगोपांग अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । जैन श्रमण संस्कृति के क्रमिक विकास का यहाँ चित्र प्रस्तुत है जिसके अध्ययन से पता लगता है कि जैन श्रमणों को अपने संघ को सुदृढ़ बनाने के लिए क्याक्या कष्ट सहन नहीं करने पड़े। इस दृष्टि से जैन छेदसूत्र और उनकी टीकाओं का अभ्यास विशेष उपयोगी है।