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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज आजीविक समस्त जीवों को एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि पाँच भागों में विभक्त करते हैं, छः लेश्याएँ.( अभिजाति) स्वीकार करते हैं, और जीवहिंसा से विरक्त रहने का उपदेश देते हैं, इस मत के साधु कठोर तप' करते हैं, नग्न विहार करते हैं, पाणिपात्र में भिक्षा ग्रहण करते हैं, मद्य,मांस, कंदमूल, लहसुन, प्याज, उदंबर, वट,पीपल तथा उद्दिष्ट भोजन के त्यागी होते हैं। आजीविक धर्म के उपासक बिना बधिया किये हुए और बिना नाक-बिंधे बैलों द्वारा हिंसा-विवर्जित व्यापार से अपनी आजीविका करते हैं । ये लोग अग्निकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटकर्म, स्फोटककर्म, दंतवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, केशवाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्रपीड़न कर्म, निर्लाछन कर्म, दवाग्निदापन, सरःशोष (तालाब सुखवाना) और असतीपोषण-इन पंद्रह कर्मादानों से विरक्त रहते हैं। इन सब आचार-विचारों का प्रतिपादन जैन शास्त्रों में विस्तार से किया गया है । जैन आगमों में गोशाल के अनुयायियों द्वारा देवगति पाये जाने का उल्लेख है, और स्वयं गोशाल को दूर-भव्य अर्थात् भविष्य में मोक्ष का अधिकारी बताया है।3।।
निशीथचूर्णी ( लगभग छठी शताब्दी ) में निग्रंथ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीविकों की गणना पाँच प्रकार के श्रमणों में की गयी है,इससे भी आजीविक सम्प्रदाय का महत्व सिद्ध होता है । अशोक के शिलालेखों में आजीविक सम्प्रदाय का नाम तीन बार उल्लिखित है। सम्राट अशोक के प्रपौत्र दशरथ ने इस सम्प्रदाय के श्रमणों के लिए गुफाओं का निर्माण कराया था। लेकिन जान पड़ता है कि जब आजीविक सम्प्रदाय का जोर घटने लगा और उसका प्रचार कम होता गया तो लोगों को इस धर्म के सिद्धान्तों का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं रहा। उदाहरण के लिए, जैन टीकाकार शीलांक ( ८७६ ई०) आजीविक और दिगम्बर मतानुयायियों को, जैन विद्वान् मणिभद्र आजीविकों और
१. स्थानांग सूत्र ४ में आजीविकों के चार प्रकार के कठोर तप का उल्लेख है-उग्र तप, घोर तप, घृतादिरसपरित्याग और जिह्वन्द्रियप्रतिसंलीनता।
२. भिक्षा के नियमों के लिए देखिये औपपातिक सूत्र ४१, पृ० १६६ । ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति १५; उपासक दशा ६-७ । ४. आजीविक मत की विशेष जानकारी के लिए देखिये होएनल,