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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[ च० खण्ड
आदि से प्रहार करते और आक्रोशपूर्ण वचन कहते । ' अविनीत शिष्यां की तुलना गलिया बैलों ( खलु क ) से को गयो है जो धैर्य न रखने के कारण, आगे बढ़ने से जवाब दे देते है । ऐसे शिष्यों को यदि किसी कार्य के लिए भेजा जाये तो वे इच्छानुसार, पंख निकले हुए हंसशावकों की भाँति, इधर-उधर घूमते रहते है । ऐसे कुशिष्यों को अत्यन्त कुत्सित गर्दभ (गलिगद्दह ) की उपमा दी गयी है । आचार्य ऐसे शिष्यों से तंग आकर, उन्हें उनके माग्य पर छोड़ देते और स्वयं वन में तप करने चले जाते ।
दुर्विनीत शिष्य
दुर्विनीत शिष्य अपने आचार्यों पर भी हाथ उठा देते थे । इन्द्रपुर के राजा इन्द्रदत्त के बाईस पुत्रों का उल्लेख किया जा चुका है। जब उन्हें आचार्य के पास पढ़ने भेजा गया तो उन्होंने कुछ नहीं पढ़ा । आचार्य यदि कभी कुछ कहते सुनते तो वे आचार्य को मारते-पीटते और दुर्वचन बोलते । यदि आचार्य उनकी ताड़ना करते तो वे अपनी मां से जाकर शिकायत करते । मां आचार्य के ऊपर गुस्सा करती और ताना मारती कि क्या आप समझते हैं कि पुत्र कहीं से ऐसे ही आ जाते है ।
शिष्य अपने गुरु का आदेश पाकर हाथापाई कर बैठते थे । हरिकेशी मुनि जब किसी ब्राह्मण के यज्ञवाटक में भिक्षा के लिए गये तो अपने अध्यापक का इशारा पाकर छात्रगण (खंडिय ) मुनि को डंडों, बेंतों और कोड़ों से मारने-पीटने लगे, जिससे कि उसे खून की उल्टी होने लगी ।"
अच्छे-बुरे शिष्य
शिष्यों को शैल, कुट, छलनी आदि के समान बताया गया है । कुछ शिष्य शैल (पर्वत) के समान अत्यन्त कठोर होते हैं, और कुछ कृष्णभूमि (काली मिट्टी वाली जमीन ) के समान आचार्य के बताये हुए अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ होते हैं । कुट
१. वही १.३८ ।
२. वही २७.८, १३, १६ आदि । तथा देखिए एच० आर० कापड़िया, वही, पृ० २१२–१५ ।
३. उत्तराध्ययनटीका ३.६५-अ ।
४. उत्तराध्ययनसूत्र १२.१८-१९ आदि ।