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प्रस्तावना
न्यायविनिश्चय के प्रथम भाग में ग्रन्थकारोंके सम्बन्धमें लिखा गया है । अतः इस भागमें मात्र विषयपरिचय दिया जा रहा है ।
कारिकासंख्या
न्यायविनिश्चयविवरण प्रथम भागकी प्रस्तावना में मैंने मूलकारिकाओंकी संख्या निश्चित करने का प्रयत्न किया था किन्तु उसमें निम्नलिखित संशोधन अपेक्षित हैं । मूलश्लोकों में 'अन्तर श्लोक, जो कि वृत्तिके बीच बीच में आते हैं, और संग्रहश्लोक, जो कि वृत्ति में कहे गये अर्थका संग्रह करते हैं, भी आते हैं । इन सबको मिलाकर न्यायविनिश्चय मूलमें कुल ४८० श्लोक होते हैं । प्रथम प्रस्तावमें १६८३, द्वितीय प्रस्ताव २१६३ तथा तृतीय प्रस्तावमें ९५ । विवरणके दोनों भागों में इलोकोंके नम्बर अशुद्ध छपे हैं, अनुक्रममें भी अशुद्धियाँ हो गई हैं । अतः इस ग्रन्थके प्रारंभ में मूल श्लोक एक साथ छाप दिये हैं। उनमें अन्तरश्लोक और संग्रहश्लोकोंका विभाग भी कर दिया है। अनुक्रमकी अशुद्धियोंको शुद्धिपत्र में देख लेना चाहिये ।
विषय- परिचय
प्रमाणविभाग
प्रथम प्रस्तावमें प्रत्यक्षका सांगोपांग वर्णन करनेके बाद इस भागके दो प्रस्तावों में परोक्ष प्रमाण ar वर्णन किया गया है । आगम परम्परा में प्रमाण के दो ही विभाग दृष्टिगोचर होते हैं । इस परम्परा में प्रमाणताका आधार बिलकुल जुदा है । आत्ममान्नसापेक्षज्ञान प्रत्यक्ष और इन्द्रिय मन आदिकी अपेक्षा रखनेवाले ज्ञान परोक्ष होता है । इस परिभाषासे अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष कोटिमें तथा शेष सब ज्ञान परोक्ष कोटिमें आते हैं । पाँच ज्ञानोंमें मति और श्रुत परोक्ष हैं । तत्त्वार्थ सूत्र (१।१३ ) में मतिज्ञान के पर्यायरूपसे मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधको गिनाया है । उसका तात्पर्य बताते हुए टीकाकारोंने लिखा है कि ये सब ज्ञान चूँकि मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होते हैं अतः मतिज्ञानमें शामिल हैं । जहाँतक स्मृति, संज्ञा ( प्रत्यभिज्ञान ), चिन्ता (तर्क) औ अभिनिबोध ( अनुमान ) का प्रश्न है वहाँ तक इन्हें परोक्ष माननेमें कोई आपत्ति नहीं है किन्तु मति अर्थात् पाँच इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको परोक्ष कहनेमें लोकबाधा और प्रचलित दार्श - निक परम्पराओंका स्पष्ट विरोध होता है । सभी दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं । प्रत्यक्ष शब्दका अर्थ भी "अक्षम् अक्षं प्रति वर्तते इति प्रत्यक्षम् " इस व्युत्पत्तिके अनुसार इन्द्रियाश्रित ज्ञान ही फलित होता है। ऐसी दशामें जैन परम्पराकी प्रत्यक्ष परोक्षकी वह परिभाषा बिलकुल अनोखी लगती थी और इससे लोक व्यवहारमें असंगति भी आती थी ।
आगमिक कालमें ज्ञानके सम्यक्त्व और मिथात्वके आधार भी भिन्न ही थे । जो ज्ञान मोक्षमार्गोपयोगी होता था वही सम्यक ज्ञान कहलाता था । लोकमें सम्यग्ज्ञान रूपसे प्रसिद्ध यानी वस्तुका
१ पृ० ३३ ।
२ “निराकारेत्यादयः अन्तरश्लोकाः वृत्तिमध्यवर्त्तित्वात् विमुखेत्यादिवार्तिक व्याख्यान वृत्तिग्रन्थमध्यवर्तिनः खल्वमी श्लोकाः ं संग्रहश्लोकास्तु वृत्त्युपदर्शितस्य वार्तिकार्थस्य संग्रहपरा इति विशेषः । " - न्यायवि० वि० प्र० पृ० २२९ ।
३ देखो तत्त्वार्थवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि ।