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सम्पादकीय
(प्रथम संस्करण, १६४६ से)
सन् १६३३ से ही जब मैंने ‘न्यायकुमुदचन्द्र' का सम्पादन आरम्भ किया था, यह संकल्प था कि के ग्रन्थों का शुद्ध सम्पादन किया जाय। इस संकल्प के अनुसार अकलङ्कग्रन्थत्रय में 'न्यायविनिश्चय' की मूल कारिकाएँ भी उत्थान वाक्यों के साथ प्रकाशित की जा चुकी हैं। इन कारिकाओं को छाँटते समय 'न्यायविनिश्चयविवरण' की उत्तरप्रान्तीय कतिपय प्रतियाँ देखी गयी थीं। ये प्रतियाँ अशुद्धिबहुल तो थीं हीं, पर इनमें एक-एक दो-दो पत्र तक के पाठ यत्र तत्र छूटे हुए थे। उस समय मूडबिद्री के वीरवाणी विलास भवन से ताडपत्रीय प्रति भी मँगायी थी । उसके देखने से यह आशा हो गयी थी कि इसका भी शुद्ध सम्पादन हो सकता है । प्रमाणवार्तिकालङ्कार जैसे पूर्वपक्षीय बौद्ध ग्रन्थों की प्रतियाँ प्राप्त हो जाने से यह कार्य असाध्य नहीं रहा ।
सन् १६४४ में दानवीर साहु शान्तिप्रसाद जी ने ज्ञानपीठ की स्थापना की। इसमें स्व. मातेश्वरी मूर्तिदेवी के स्मरणार्थ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्रारम्भ की गयी। संस्कृत विभाग में 'न्यायविनिश्चयविवरण' का सम्पादन लगातार चलता रहा है। इसके संशोधनार्थ बनारस, आरा, सोलापुर, सरसावा, मूढबिद्री और वारंग के मठ से चार कम्मज की तथा दो ताडपत्र की प्रतियाँ एकत्रित की गयीं।
बनारस की प्रति स्याद्वाद जैन विद्यालय के 'अकलङ्क सरस्वती भवन' की है। इसकी संज्ञा ब. रखी गयी है। अशुद्ध पर सुवाच्य है ।
आरा की प्रति 'जैन सिद्धान्त भवन' की है। इसकी संज्ञा आ. रखी है। यह बनारस की प्रति की तरह ही अशुद्ध है। बनारस की प्रति इसी प्रति से लिखी गयी है।
सोलापुर से ब्र. सुमति बाई शाह ने जो प्रति भिजवायी थी वह बम्बई में ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन की प्रति थी । यह भी अशुद्धप्राय है। इसकी संज्ञा स. है।
से
सरसावा से पं. परमानन्द जी शास्त्री ने वीर सेवा मन्दिर की प्रति भिजवायी थी । यह पूर्वोक्त प्रतियों कुछ शुद्ध है। इसकी संज्ञा प है । ये प्रतियाँ कागज पर लिखी गयी हैं तथा इनमें पंक्तियाँ तो अनेक स्थानों पर छूटी ही हैं, एक-एक दो-दो पत्र तक के पाठ छूटे हैं।
वीरवाणी विलास भवन, मूडबिद्री से जो ताडपत्रीय प्रति कनड़ी लिपि में प्राप्त हुई थी, उसे हमने आदर्श प्रति माना है। इसमें २७७ पत्र, एक पत्र में ६-१० पंक्तियाँ तथा प्रति पंक्ति १५३-१५४. अक्षर
हैं।
यह प्रति प्रायः पूर्ण और शुद्ध है। मूल कारिकाओं के उत्थान वाक्य के आगे इस प्रकार का कारिका भेदक चिह्न बना हुआ है। इस प्रति में कहीं-कहीं टिप्पण भी हैं, जिन्हें इस संस्करण में 'ता. टि.' इस संकेत के साथ टिप्पण में दे दिया है
जहाँ इस प्रति में बिलकुल ही अशुद्ध पाठ रहा है वहीं इसका पाठ पाठान्तर टिप्पण में देकर अन्य प्रतियों का पाठ ऊपर दिया है। सभी प्रतियों में जहाँ अशुद्ध पाठ है तथा सम्पादक को शुद्ध पाठ सूझा है, ऐसे स्थान में ताडपत्रीय प्रति का अशुद्ध पाठ ही मूल में रखा है तथा सम्पादक द्वारा किया गया संशोधन गोल ब्रेकिट ( ) में दिया है या सन्देहात्मक चिह्न ( ? ) दे दिया है। हमने स्वसंशोधित पाठ