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न्यायविनिश्चयविवरण
भारतीय न्याय - साहित्य में आचार्य अकलंकदेव (आठवीं सदी) के ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके अब तक जिन ग्रन्थों का पता चला है उनमें 'लघीयस्त्रय', 'प्रमाणसंग्रह', 'न्यायविनिश्चय' और 'सिद्धिविनिश्चय' पूर्णतया न्याय के विषय हैं। उनके ग्रन्थ 'न्यायविनिश्चय' पर टीकाकार आचार्य वादिराज सूरि (बारहवीं सदी) द्वारा लिखा गया विवरण (न्यायविनिश्चयविवरण) अत्यन्त विस्तृत और सर्वांग सम्पूर्ण है।
'न्यायविनिश्चय' में अकलंकदेव ने जिन तीन प्रस्तावों (परिच्छेदों)- प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन में जैन न्याय के सिद्धान्तों का गम्भीर और ओजस्वी भाषा में प्रतिपादन किया है, व्याख्याकार वादिराज सूरि ने 'न्यायविनिश्चयविवरण' में अपनी भाषा और तर्कशैली द्वारा उन्हें और भी अधिक स्पष्ट और तलस्पर्शी बनाया है।
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जैन दर्शन और न्याय के इस सदी के उद्भट विद्वान प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य ने बड़ी कुशलता और सावधानी से इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ दो भागों में निबद्ध है। इसका पहला भाग सन् 1949 में और द्वितीय भाग 1955 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। एक अरसे से अनुपलब्ध होने के कारण न्यायशास्त्र के क्षेत्र में इसका अभाव-सा खटक रहा था। भारतीय ज्ञानपीठ को हर्ष है कि वह जैन वाङ्मय की इस अक्षयनिधि का नया संस्करण नये रूपाकार प्रकाशित कर न्याय-साहित्य के अध्येता विद्वानों को समर्पित कर रहा है।