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________________ चतुर्थ परिच्छेद [८३ भावार्थ-ज्ञानरहित आत्मा होय तौं ज्ञानजनित क्रियाका अभाव आवै अर ज्ञानजनित क्रिया आत्मावि देखिए ही है, तातै ज्ञान रहित आत्मा कहना मिथ्या है ॥३१॥ प्रधानज्ञानतो ज्ञानी, वाच्यो ज्ञानशालिभिः । अन्यज्ञानेन न ह्यन्यो, ज्ञानी क्वापि विलोक्यते ॥३२॥ अर्थ-बहुरि प्रधान ज्ञानकरि आत्मज्ञानी है ऐसा ज्ञानवन्तनि करि कहना योग्य नाहीं, जातें और केवलज्ञान करि और ज्ञानी कहूँ भी न देखिए है ॥३२॥ बहुरि कहै हैं : न शुद्धः सर्वथा जीवो, बन्धाभावप्रसंगतः । न हि शुद्धस्य मुक्तस्य, रेश्यते कर्मबन्धनम् ॥३३॥ अर्थ-सर्वथा जीव शुद्ध नाहीं, जातै बन्धके अभावका प्रसंग आवै है, शुद्ध मुक्त जीवकै कर्मबन्धन नहीं देखिए है। भावार्थ-सर्वथा शुद्ध जीव होय तौं बन्धका अभाव ठहरै, पुण्य पापरूप कर्मबन्ध कौनकै होय ? रागादिक भाव कौनकै होय ? तातै सर्वथा जीवकौं शुद्ध कहना मिथ्या है ॥३३॥ प्रधानेन कृते धर्मे, मोक्षभागी न चेतनः । परेण विहिते भोगे, तृप्तिभागी कुतः परः ॥३४॥ अर्थ-बहुरि वह कहै है धर्म प्रधान करै है आत्मा तौ शुद्ध अकर्ता ही है ताक आचार्य कहै हैं-प्रधानकरि धर्मकौं करते सन्ते चेतन मोक्षगामी न होय जातें और करि भोग किये सन्ते और तृप्ति भजनेवाला कैसे होय ? भावार्थ-जैसे भोग और भौगे अर सुखी और ऐसी बने नाहीं तैसें प्रधान तो धर्म करें अर चेतनकी मोक्ष होय ऐसी बनें नाहीं ॥३४॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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