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________________ तृतीय परिच्छेद [ ६७ प्रवेशरूप किये सन्ते निर्मल पापकी हरनेवाली रुचि प्रतीतिकौं विस्तारें हैं । जैसे जिनेंद्रके उपदेश रुचि विस्तारै तैसैं । भावार्थ – तत्वार्थ श्रद्धानलक्षण सम्यग्दर्शन की शुद्धता इन तत्वनिके विशेष जानें अधिक अधिक होय है ऐसा जानना ॥७२॥ आगे सम्यक्त्व के निःशंकितादि अष्ट अंगनिका वर्णन करे हैं; विरागिणा सर्वपदार्थवेदिना, जिनेशिने ते कथिता न वेतिः यः । करोतिशंकां न कदापिमानसे, निःशंकितोऽसौ गदितो महामनाः ॥७३॥ अर्थ- वीतराग अर सर्वपदार्थनिका ज्ञाता जिनेन्द्र देवता करि ये सर्व पदार्थ कहैं हैं ते हैं ? वा नाहीं हैं ? ऐसी शंकाकौं जो कदाचित् मन विषै नहीं करै सो यहु महामुनि ( महामना) निःशंकित कह्यो है । - भावार्थ - जिन वचनमें वा आत्म स्वरूपमें संवेह न होना सो निःशंकित अंग है ऐसा जानना ॥ ७३ ॥ विधीयमानाः शमशीलसंयमाः, श्रियं ममेमे वितरन्तु चितिताम् । सांसारिकाने कसुखप्रर्वाद्धनीं, निःकांक्षितो नेति करोति कांक्षणाम् ॥७४॥ जानना ||७४। अर्थ - ये उपशम शील संयम हैं ते करे भये संसारीक अनेक सुखनिकी बढानेवाली वांछित लक्ष्मीकों मेरें विस्तारहु ऐसी वांछा, नि-कांक्षित पुरुष है सो न करें है । भावार्थ - कर्म के फलकी वांछा त्यागिये सो निःकांक्षित अंग तपस्विनां यस्तनुमस्त संस्कृति, जिनेन्द्र धर्मं सुतरां सुदुष्करम् । निरीक्षमाणो न तनोति निन्दनं, स भण्यते धन्यतमोऽचिकित्सकः ॥७५॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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